आमंत्रण के बावजूद नहीं पहुंचे सांसद कुंवर छोटेलाल खरवार और विधायक कैलाश आचार्य
चंदौली/ जिले के तहसील नौगढ़ के पंचायत बसौली में आयोजित वीर एकलव्य जयंती समारोह में शुक्रवार को जहां आदिवासी समाज अपने गौरवशाली इतिहास का उत्सव मना रहा था, वही आमंत्रण के बावजूद सोनभद्र के सांसद कुंवर छोटेलाल खरवार, भाजपा विधायक कैलाश आचार्य, मछली शहर की विधायक रागिनी सुनकर और चंदौली के पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष छत्रबली सिंह जैसे आमंत्रित गणमान्य नेता नदारत रहे। सिर्फ पूर्व सांसद पकौड़ी कोल ने उपस्थित होकर एकलव्य मंदिर का उद्घाटन किया। कुछ देर बाद समारोह में ब्लॉक प्रमुख प्रतिनिधि सुजीत सिंह उर्फ सुड्डू पहुंचे थे ।
आपको बता दें कि 31जनवरी को एकलव्य मंदिर के उद्घाटन और समारोह की जानकारी आयोजकों ने एक महीने पहले से आमंत्रण पत्र, पोस्टर और बैनर के माध्यम से पूरे क्षेत्र में दी थी। स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोग और नेता, सुबह से ही अपने नेताओं के स्वागत के लिए उमड़ पड़ा था। लेकिन शाम 5 बजे तक, पूर्व सांसद पकौड़ी कोल के अलावा कोई भी आमंत्रित अतिथि नहीं पहुंचा।
*नेताओं की अनुपस्थिति: समुदाय की भावनाओं के साथ खिलवाड़?*
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,मारोह में मुख्य अतिथियों की अनुपस्थिति ने आयोजन की गरिमा को आहत किया और स्थानीय जनता को निराश कर दिया। बड़ा सवाल यह है कि जब इतने वरिष्ठ नेताओं को आमंत्रित किया गया था, तो वे आखिर क्यों नहीं आए? क्या आदिवासी समुदाय के सम्मान और उनके धार्मिक आयोजनों को कमतर आंका जा रहा है? क्या यह सिर्फ दिखावे की राजनीति थी, जहां आम जनता को चुनाव के समय ही याद किया जाता है?
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पूर्व सांसद पकौड़ी कोल ने अपने संबोधन में कहा कि आदिवासी समाज वर्षों से अपने अधिकारों और पहचान की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे में जब उनके ऐतिहासिक नायक वीर एकलव्य की जयंती मनाने का अवसर आया, तो राजनीतिक प्रतिनिधियों की इस तरह की उपेक्षा कई सवाल खड़े करती है। कार्यक्रम में जुटे लोगों ने नेताओं की गैरमौजूदगी पर नाराजगी जताई और इसे समुदाय के प्रति राजनीतिक असंवेदनशीलता करार दिया। कई लोगों का कहना था कि नेता चुनावी रैलियों और वोट मांगने के लिए गांवों में आते हैं, लेकिन जब बात समाज के वास्तविक मुद्दों और संस्कृति के सम्मान की आती है, तो वे गायब हो जाते हैं।
*क्या आदिवासी समाज को सिर्फ वोट बैंक समझा जाता है?*
नेताओं की अनुपस्थिति से यह सवाल भी उठता है कि क्या आदिवासी समाज को सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखा जाता है? क्या उनके धर्म, संस्कृति और इतिहास का राजनीतिक महत्व सिर्फ चुनाव तक सीमित रह गया है? इस तरह की घटनाएं राजनीतिक नेताओं की जवाबदेही पर सवाल खड़ा करती हैं। क्या कोई नेता आगे आकर यह बताएगा कि वे इस महत्वपूर्ण आयोजन में क्यों नहीं पहुंचे? या फिर यह मुद्दा भी समय के साथ भुला दिया जाएगा? इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ चुनावी वादों से जनता का भरोसा नहीं जीता जा सकता, बल्कि उनके आयोजनों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। आयोजकों और आदिवासी समुदाय को अब यह तय करना होगा कि वे सिर्फ नेताओं के आश्वासनों पर भरोसा करें या उनके वास्तविक कार्यों को आधार बनाएं।
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