उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत हमारी परंपरा का अमूल्य खजाना – राखी अग्रवाल

रागदारी संगीत की शुद्धता और गरिमा को बनाए रखने हेतु आवश्यक है परंपरा और नवाचार के बीच संतुलन – राखी अग्रवाल

गाजीपुर। स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर में पूर्व शोध प्रबंध प्रस्तुतीकरण संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी महाविद्यालय के अनुसंधान एवं विकास प्रकोष्ठ तथा विभागीय शोध समिति के तत्वावधान में महाविद्यालय के सेमिनार हाल में सम्पन्न हुई, जिसमें महाविद्यालय के प्राध्यापक, शोधार्थी व छात्र/ छात्राएं उपस्थित रहे। उक्त संगोष्ठी मे संगीत विषय की शोधार्थिनी राखी अग्रवाल ने अपने शोध प्रबंध शीर्षक  “उत्तर भारतीय रागदारी संगीत में व्याप्त विसंगतियां एवं विरोधाभास: एक अध्ययन” नामक विषय पर शोध प्रबंध व उसकी विषय वस्तु प्रस्तुत करते हुए कहा कि उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत हमारी परंपरा का अमूल्य खजाना है। यह केवल नियमों के अंतर्गत स्वरों का संयोजन नहीं, बल्कि भाव, समय, ऋतु और मनोभावों की गहरी अभिव्यक्ति है। रागदारी पद्धति में राग स्वरूप, समय-प्रणाली, वादी-संवादी स्वर, आलाप, तान, बंदिश आदि सभी का अपना अनुशासन है। गुरु-शिष्य परंपरा, घरानों की विशिष्टता और शुद्धता की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। लेकिन, वर्तमान समय में इस परंपरा के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं। जिसमें राग के मुख्य लक्षणों, स्वर स्वरूप, कण स्वरों के प्रयोग तथा सही स्वरोच्चार आदि की अवहेलना, बंदिशों के अर्थ और भाव से असंगत प्रस्तुति, जहाँ शब्द तो पारंपरिक हैं पर भाव आधुनिकता में खो जाते हैं और कभी कभी बंदिश का कोई अर्थ ही नहीं निकलता।  घराना परंपरा के क्षीण होने  के कारण आजकल विभिन्न घरानों की शैलियों का मिश्रण इतना हो रहा है कि उनकी विशिष्ट पहचान मिटती जा रही है। इसके अलावा, रागों में अनावश्यक प्रयोग और निरंतर सीखने और रियाज की कमी भी गंभीर विषय है। विरोधाभास भी कम नहीं है। इसमें जहाँ  एक ओर परंपरा को संरक्षित रखने की पुकार है, तो दूसरी ओर फ्यूजन और लोकप्रिय संगीत की लहर है। एक तरफ शुद्धता और गहराई का आग्रह है, तो दूसरी तरफ व्यावसायिक मंचों पर आकर्षक लेकिन सतही प्रस्तुति का दबाव है। गुरु-शिष्य परंपरा का स्थान संस्थागत प्रशिक्षण ले रहा है, जिससे प्रमाण पत्र तो मिलता है, मगर शास्त्रीय संगीत की समझ नहीं। गुरु और शिष्य के बीच आत्मीयता और निजी मार्गदर्शन कम हो रहा है। इन विसंगतियों और विरोधाभासों का समाधान संतुलन में है। हमें परंपरा का सम्मान करते हुए नियंत्रित नवाचार को अपनाना होगा। युवा पीढ़ी में राग-शुद्धि और ताल-लय की समझ गहरी करनी होगी, और घराना परंपरा के पुनर्जीवन के प्रयास करने होंगे और अंत में मैं यही कहूँगी कि उत्तर भारतीय रागदारी संगीत केवल हमारी धरोहर नहीं, हमारी पहचान है। इसे संरक्षित रखना, संवारना और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना हम सबका सामूहिक दायित्व है। प्रस्तुतिकरण के बाद विभागीय शोध समिति, अनुसंधान एवं विकास प्रकोष्ठ व प्राध्यापकों तथा शोध छात्रों द्वारा शोध पर विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे गए जिनका शोधार्थिनी राखी अग्रवाल ने संतुष्टिपूर्ण एवं उचित उत्तर दिया। तत्पश्चात समिति एवं महाविद्यालय के प्राचार्य प्रोफे०:(डॉ०) राघवेन्द्र कुमार पाण्डेय ने शोध प्रबंध को विश्वविद्यालय में जमा करने की संस्तुति प्रदान किया।  इस संगोष्ठी में महाविद्यालय के प्राचार्य प्रोफे० (डॉ०) राघवेन्द्र कुमार पाण्डेय, अनुसंधान एवं विकास प्रकोष्ठ के संयोजक प्रोफे० (डॉ०) जी० सिंह, शोध निर्देशक एवं संगीत  विभाग की विभागाध्यक्षा प्रोफे० (डॉ०) मीना सिंह, प्रोफे(डॉ०) अरुण कुमार यादव, डॉ० रविशेखर सिंह, डॉ० रामदुलारे, डॉ० अशोक कुमार, डीएसडब्ल्यू प्रोफे० (डॉ०) संजय चतुर्वेदी, डॉ० लवजी सिंह, डॉ० मनोज कुमार मिश्र, डॉ०कमलेश, अमितेश सिंह, प्रदीप सिंह एवं महाविद्यालय के प्राध्यापकगण तथा शोध छात्र छात्रएं आदि उपस्थित रहे। अंत में डॉ० मीना सिंह ने सभी का आभार प्रकट किया तथा संचालन अनुसंधान एवं विकास प्रोकोष्ठ के संयोजक प्रोफे०(डॉ०) जी० सिंह ने किया।

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