परम्परा का संरक्षण के लिये शास्त्र के संरक्षण के साथ-साथ विद्वानों का संरक्षण आवश्यक है

इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, क्षेत्रीय केन्द्र वाराणसी, सर्वदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, श्री काशी विद्वत्परिषद्, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली तथा वैश्विक संस्कृत मंच दिल्ली प्रान्त के संयुक्त तत्त्वावधान में ”परम्परायाः संवर्धनमाधुनिकदृष्टयाऽनुप्रयोगश्च’’ इस विषय पर अन्ताराष्ट्रिया संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस शुभावसर पर उद्घाटन सत्र में वेदवेदान्तादि विद्याविशारद उत्सवपुरुष प्रो० के० ई० धरणीधरः, पूर्व विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, पाण्डिचेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरी का सम्मान एवं अभिनन्दन पत्रवाचन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्यातिथि प्रो० मुरली मनोहर पाठक, कुलपति, श्री ला.ब.शा.रा.सं.वि.वि., नई दिल्ली एवं मुख्यवक्ता प्रो० कृष्णकान्त शर्मा, पूर्व संकाय प्रमुख, सं.वि.ध.वि. संकाय, का.हि.वि.वि., वाराणसी थे। इस उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता पद्मभूषण प्रो० वसिष्ठ त्रिपाठी, पूर्व विभागाध्यक्ष, सं.वि.ध.वि. संकाय, का.हि.वि.वि., वाराणसी द्वारा की गयी। प्रो० विष्णुपद महापात्र ने विषय प्रवर्तन किया एवं प्रो० शिवराम शर्मा ने प्रो० के० ई० धरणीधरन् के प्रशस्ति में प्रशस्ति वाचन किया। कार्यक्रम में वाचिक स्वागत करते हुये कला केन्द्र निदेशक डॉ० अभिजित् दीक्षित ने काशी की विद्वत्परम्परा की ज्ञानमीमांसा को प्रकाशित करते हुये।

इस सारस्वत सत्र के मुख्य वक्ता प्रो० कृष्णकान्त शर्मा ने कहा कि परम्परा का संरक्षण केवल शास्त्र के संरक्षण से नहीं होगा इसके लिये हमें अपने ग्रन्थ को धारण करने वाले विद्वानों का संरक्षण एवं सम्मान बहुत ही आवश्यक है। क्योंकि भारतीय परम्परा में कहा गया है – ‘ग्रन्थि भवति पण्डितः’ ।

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तदुपरान्त विशिष्ट अतिथि उत्सवपुरुष आचार्य के ई धरणीधरन ने भारतीय ज्ञानपरम्परा के मर्म को समझाते हुए विशेषकर दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित किया और दर्शन और साहित्य के अन्तःसम्बन्धों पर विशेष प्रकाश डाला। इसके बाद लालबहादूर राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविश्वविद्याल के माननीय कुलपति प्रो० मुरली मनोहर पाठक ने गुरुकुल परम्परा के अनुसार अध्ययन पर विशेष बल देते हुए कहा कि छात्रों को गुरु के समीप बैठकर ही अध्ययन करना चाहिए। इससे विद्या का सटीक सम्प्रेषण होता है। शिष्य कितना ग्रहण किया इसका ज्ञान शिष्य के मुखमुद्रा के अवलोकन से गुरु को हो जाता है। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पद्म भूषण प्रो0 वशिष्ठ त्रिपाठी जी ने पारम्परिक अध्ययन पर बल देते हुए कहा कि यदि गुरु लगन अध्यापन कार्य करे तो दुष्कर विषय भी सुकर हो सकता है।

इसके बाद के तीनों सत्रों में 20 से अधिक विद्वानों ने शोध पत्र वाचन किया। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में छः तकनीकी सत्र का आयोजन किया जायेगा जिसमें 150 से अधिक प्रतिभागी भाग लेते हुए भारतीय ज्ञान परम्परा का सम्बर्धन तथा अभिनव अनुप्रयोगों पर चर्चा करेंगे।

कार्यक्रम में काशी विद्वत्परंपरा के वरिष्ठ विद्वानों के प्रतिनिधि रूप में प्रो शिवराम शर्मा, प्रो कमलेश कुमार जैन, प्रो कौशलेंद्र पाण्डेय, प्रो सी बी झा, प्रो दीनानाथ शर्मा, प्रो जवाहर जायसवाल, डॉ मार्कंडेय तिवारी, प्रो रामनारायण द्विवेदी एवं डॉ अनुराधा चौधुरी भारतीय ज्ञान परंपरा की राष्ट्रीय सहसंयोजिका उपस्थित थे। पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पांडिचेरी, श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली, काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की विविध छात्र-छात्राओं के साथ साथ अध्यापक गणों ने सभा में सहभागिता की। कार्यक्रम का संचालन केन्द्र के डॉ. रजनीकान्त त्रिपाठी ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन प्रो. जवाहर लाल, श्री ला.ब.शा.रा.सं.वि.वि., नई दिल्ली द्वारा किया गया।

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