डॉ सुजाता पांडेय ,निदेशक“धनराज वृद्धाश्रम”

प्रयागराज। [मनोज पांडेय]बच्चों को बेहतर शिक्षा, खुशहाल और वृद्धावस्था में खुद के लिए आशियाना बनाने के लिए अपनी खुशियों की कुर्बानी देने वाले मां-बाप को बच्चे संपत्ति के लालच में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर की ड्योढ़ी के बाहर वृद्धाश्रम में धकेल देते हैं। भारत में बुजुर्गों के साथ सौतेला व्यवहार और तिरस्कार के अनेक कारण हो सकते हैं जिसमें एकल परिवार का बढ़ावा, संस्कार का अभाव और संकुचित विचारधारा आदि है। आज जीवन में संस्कार का अभाव और बच्चों में सर्वांगीण विकास में बाधा जैसी समस्याओं की वजह बुजुर्गों का परिवार में तिरस्कार और घर के बाहर करना ही है।
भारत में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम की परंपरा है किंतु वृद्ध आश्रम की नहीं। वृद्धाश्रम पश्चिम की देन है जहां बुजुर्गों को बोझ समझ घर की ड्योढ़ी के बाहर वृद्धाश्रमों में धकेल दिया जाता है। शहरों में एकल परिवार का ही बोलबाला बढ़ता गया है। अब गांव भी सामाजीकरण की इस प्रक्रिया से अछूते नहीं रह गए। अब गिने चुने परिवारों में ही संयुक्त परिवार की अवधारणा देखने को मिलती है जहां दो-तीन पीढ़ियां एक ही छत के नीचे रहती हैं। पूर्वांचल विकास समिति द्वारा संचालित “धनराज वृद्धाश्रम” की निदेशक डा सुजाता पाण्डेय ने बताया कि अपना कहलाने वाले बच्चे पिता से सब कुछ हासिल करने को अपना हक समझते हैं लेकिन युवा होने पर वही संताने संवेदनाओं और मूल्यों को तिलांजलि देकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ माता-पिता को दर-बदर की ठोकरें खाने के लिए घर के बाहर कर देते हैं। समाज के कुछ लोग उन्हें वृद्धाश्रम तक पहुंचाकर पुण्य के भागीदार बनते हैं। डा पाण्डेय ने बताया कि परिवार का सौतेला व्यवहार उनके आत्म-सम्मान और जीवन की गुणवत्ता को कम करता है जो उनके शारीरिक और मानसिक पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। उन्हें परिवार का अकेलापन, अवसाद, और चिंता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वो बुजुर्ग बड़े सौभाग्यशाली है जिन्हें अपनो का अपनापन जीवन के अंतिम पडाव तक मिलता है।

निदेशक डाॅ पाण्डेय ने कहा कि इसे वृद्धाश्रम न/न कहकर “सेवा कुंज” कहना अधिक श्रेयस्कर होगा। यह सेवा कुंज लगभग दो साल से परिवार से तिरस्कृत बुजुर्गों की श्रद्धाभाव से सेवा करता आ रहा है। उन्होंने बताया कि वृद्धाश्रमों को चलाने के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती है, कई वृद्धाश्रम दानदाताओं द्वारा दिए गए दान पर निर्भर करते हैं। उसी में से एक धनराज वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को भोजन, आश्रय, चिकित्सा देखभाल और अन्य आवश्यक सुविधाएं प्रदान करने के लिए दानदाताओं का सहयोग लगातार मिल रहा है। उन्होंने बताया कि यहां रहने वाले सभी बुजुर्ग उनके लिए माता-पिता तुल्य है जिनकी वह नि:स्वार्थ भाव से सेवा करती हैं। एक सवाल के जवाब में यदि बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम नहीं होता तो बुजुर्ग दर-ब-दर की ठोकरें खाने को मजबूर रहते। यहां वे अकेलापन महसूस न करें और अपने समान विचारधारा वाले लोगों के साथ प्रसन्नता पूर्वक समय बिताते हैं। ऐसी स्थिति में वृद्धाश्रम उनके लिए एक सुरक्षित और सम्मानजनक विकल्प प्रदान करते हैं। समाज में इस बदलाव के कारण वृद्धाश्रम अब बुजुर्गों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं। बुजुर्गों के प्रति सम्मान और गरिमा को बढ़ावा देने के साथ देखभाल और करुणा का व्यवहार करना है जिसके वे हकदार हैं।
उन्होंने बताया कि उनके सेवाकुंज में वर्तमान समय में कुल 17 बुजुर्ग हैं। जिसमें 10 माताएं और सात पुरूष हैं। इसमें बीए,बीएड, एमबीबीएस, अधिकारी एवं अधिकांश शिक्षित हैं लेकिन समय की मार ने इनको दूसरों पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया। इसमें कुछ तो विकलांग है जो अपना दैनिक कार्य भी नहीं कर सकती। इसमें सभी परिवार के सौतेलापन और तिरस्कृत हैं। उनकी सेवा आश्रम के प्रबंधक शुभम करते हैं। शुभम कहने को तो प्रबंधक है लेकिन उनके मृदु व्यवहार से सभी उनको अपना बेटा, भाई एवं मित्र मानते है। डा सुजाता ने बताया कि पूर्व न्यायाधीश जनार्दन सिंह ने इस सात कमरों वाले मकान को आश्रम के लिए दान दिया है। इसी प्रकार आश्रम में रहने वाले बुजुर्गाें के रहने, खाने पीने, दवा, बिजली खर्च आदि दानदाताओं के सहयोग से चलता है। कम पड़ने पर वह स्वयं आश्रम का खर्च वहन करती हैं। बुजुर्गों के लिए सभी सातों कमरों में में कूलर की व्यवस्था भी की गई है। उन्होंने बताया कि“बुजुर्ग को घर के बाहर फेंकना एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी का जलकर राख होना है।
डाॅ़ पाण्डे ने बताया कि बुजुर्ग हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर एवं समाज का मेरुदंड हैं। जिस देश में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा ने जन्म लिया, जहां की परिवार-परम्परा दुनिया के लिये आदर्श बनी है, वहां परिवार की परिभाषा सिमटती जा रही है। बुजुर्ग, उम्र बढ़ने से शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों के कारण अलग-थलग और अकेला महसूस करते हैं। वृद्धाश्रमों में केवल निराश्रित एवं अभावग्रस्त वृद्धजन ही नहीं रह रहे हैं बल्कि उन लोगों की संख्या भी अधिक है, जिनके घर में अपने तो हैं, वैभव-सम्पन्नता भी है, किंतु वे उनसे विमुख हैं। परिवार में जिन बुजुर्गों को पेंशन मिलती है, उन्हें भी बोझ समझ लिया जाता है। उसी में एक विद्याधर मालवीय (परिवर्तित नाम) है जो एक अच्छी राशि पेंशन के रूप में अर्जित करते है। इनके नाती की बहू ने इन्हे तिरस्कृत कर बाहर कर दिया, तब इन्होंने इस सेवा कुंज को ही अपना घर मान लिया। अपनी पेंशन का बड़ा हिस्सा इन्ही पर खर्च करते हैं।
मालवीय ने बताया कि जिन बच्चों की खुशहाली के लिए लिए मां-बाप अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं वही बच्चे आवश्यकता पडने पर घर बाहर धकेल देते हैं। जब तक बच्चों में संयुक्त परिवार की प्रतिष्ठा और लाभ के साथ अच्छे संस्कार की शिक्षा नहीं दी जाएगी, परिणाम प्रतिकूल ही होंगे। इसी प्रकार पुष्पा माता (75), सुखिया माता (99), विमला माता, सुमनलता (80) जैसी तमाम ऐसी माताएं यहां रह रही हैं जिनके बच्चों ने इनका सुख चैन छीनकर घर से बेघर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया और उनके लिए वृद्धाश्रम सहारा बना है। वे बुजुर्ग जो घर में हैं वह घर के एक कोने में तिरस्कार भरी जिंदगी को घुट-घुटकर जीने को मजबूर रहते हैं। आज संपत्ति की लालच में बेटी हो या बहू, बुजुर्गों को घर के बाहर बेबसी भरी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया है। उन बेबस बुजुर्ग मां-बाप को वृद्धाश्रम ही जीवन का सहारा बना है।
उन्होंने बताया कि यहां रहने वाले बुजुर्ग महिलाएं एवं पुरूष वे हैं जिनकी बहू और बेटियों ने उन्हें इस मोड़ पर छोड़ दिया, जब बढ़ती उम्र, शरीर और मन को सहारे की सबसे अधिक जरूरत होती है। वृद्धाश्रम उनके लिए सिर्फ एक छत नहीं, बल्कि ज़िंदगी की आखिरी पनाहगाह है। वृद्धाश्रम सिर्फ दीवारों से घिरा कोई भवन नहीं, बल्कि टूटी उम्मीदों, छूटे रिश्तों और बेसहारा ज़िंदगी के टुकड़ों को समेटे एक अलग दुनिया है। कोई आंगन में चुपचाप बैठा, किसी के हाथ में गीता थी, किसी के मन में यादें। न कोई उत्साह, न कोई शिकायत बस एक अजीब-सी स्वीकार्यता। जैसे ज़िंदगी से अब कोई सवाल नहीं बाकी है। डॉ पाण्डे ने बताया कि हम पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में अपनी संस्कृति और विरासत में मिली धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। लोग बच्चों को अच्छी तालीम तो दे रहे हैं लेकिन अच्छे संस्कार नहीं। संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं, जिसका प्रमुख कारण है अपनी संस्कृति को भूल पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर होना है। संयुक्त परिवार हमारी भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह बुजुर्गों को एक ऐसा माहौल देता है जहाँ वे अपने बच्चों और पोते-पोतियों के साथ समय बिता सकते हैं। इसके साथ ही, परिवार में कई सदस्य होने से उनकी देखभाल का जिम्मा भी साझा हो जाता है।

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