राष्ट्र के रक्षार्थ अघोरेश्वर महाप्रभु के संदेश

-डॉ० बामदेव पाण्डेय

आज लोगों में आधुनिक बनने और बने रहने की होड़ मची हुई है, इसीलिए हम उच्च या उच्चतर शिक्षा का प्रमाण लेने के बावजूद सही अर्थों में शिक्षित नहीं हो पा रहे हैं। आज देश के कथित भाग्यविधाताओं ने शिक्षण संस्थानों में ऐसी व्यवस्था दी है कि वहाँ से निकल‌ने वाले युवा न तो भारतीय संस्कारों और संस्कृति से सुसज्जित हो पा रहे हैं और ना ही ईमानदारीपूर्ण स्वरोजगार से परिवार का भरण-पोषण करने लायक बन पा रहे हैं। आजादी के बाद इस देश की जनता आस लगाये थी कि सत्ताधारी लोग हमारा अमन-चैन वापस लायेंगे, हमारी शिक्षा व्यवस्था वापस आयेगी, क्षत-विक्षत सनातन संस्कृति का पुनर्जागरण होगा, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ भी हुआ नहीं। लुटेरे विदेशी शासकों ने हमारे समाज को बाँटने और बंटे हुए टुकड़ों को परस्पर लड़‌ा‌ने का जो अक्षम्य काम किया था, उसमें सुधार के बजाय उत्तरोत्तर गिरावट ही होती गई।

परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी ने भारत पुत्रों को सचेत करते हुए कहा है कि “हम अपने देश भारत को भारतमाता के नाम से सम्बोधित करते हैं, पूजते हैं। भारतमाता हमारा पालन-पोषण करती हैं। हम उन्हीं की संतान हैं। आज हमारे देश में कटुता, ईर्ष्या को जन्म देने वाले बहुत हैं। हमें इनसे सावधान होना चाहिए। मैत्री तो ये दे नहीं सकते। इसकी सम्भावना अब बिल्कुल कम हो गयी है।

बहुतेरे नवागन्तुक मत-मतान्तर यहाँ जहाँ-तहाँ जंगल-पहाड़ों, नगरों-ग्रामों में ठहर गये हैं। इन आगन्तु‌कों का मातृभूमि से कोई सम्बन्ध नहीं है। भारतमाता की औलाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। यही दीखता है। यही कारण है कि इनके आने के लिए हमारे राष्ट्र के नेतागण ही पूर्णतः सहयोग करते हैं। यह ऋषियों का देश है, जो ग्रामों में रहने वाला है। यह मुनियों का देश है, जो जंगलों और पहाड़ों में रहकर उस परा-प्रकृति से प्रार्थना करते हैं कि मनुष्य की मानवता बनी रहे। किन्तु ‘वे’ बनने नहीं देते । ‘वे’ मानी कौन ? वे हैं- हमारे प्रान्तों और राष्ट्र के श्वेतवस्त्रधारी नेतागण, अगुआ लोग, जो नेतृत्व करते हैं, अगुआई करते हैं और, न चाहने पर भी, विघटन की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं । अभ्यन्तर के देवता ! तूं इन्हें सुदृष्टि दो, तूं इन्हें स‌द्विचार दो, जिससे हम सब देशवासी अपने शीर्षस्थ गुरुजनों, सर्वश्रेष्ठ बुजुर्गों के उत्तम कृत्यों की परम्परा से कभी विचलित न हों। पथच्युत न हों ।

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इसी अर्थ में साधुता को भी जानना होगा, तुम्हें। आजकल समाज में, देश में, झूठ को सच और सच को झूठ करने में जुटे हुए लोगों में विघटन को प्रोत्साहन देने की प्रवृत्ति की जो होड़ लगी है, उससे तुम्हें निवृत्त रहना होगा, सावधान रहना होगा”।

पर्यावरणीय संकट के बाद मानव समाज को सर्वाधिक खतरा धर्म की गलत समझ और व्याख्या से है। आज हर धर्म के कथित धर्माचार्य अपने-अपने ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में विष-वमन कर रहे हैं। परमपूज्य अघोरेश्वर के संदेश सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण के लिए हैं। ये अमृतमयी वाणियाँ धर्म, मजहब, जात-पात, ऊँच-नीच, भाषा-क्षेत्रीयता इत्यादि के भेद से परे हैं और इन्हें अनपढ़ लोग भी समझकर स्वंय व दूसरों का भला करते हैं। इसीलिए अघोरेश्वर महाप्रभु को मानने वाले या उनकी संस्था ‘श्री सर्वेश्वरी समूह’ में विश्वास करने वाला अपार जनसमूह उनकी अमृत वाणियों को शास्त्रों से भी कहीं बहुत ज्यादा महत्व देता है। धर्म के विषय में गुमराह न होने का संदेश देते हुए उन्होंने कहा है कि “मजहब का हौवा खड़ा करने वाले, खून-खराबा, लूट-पाट, आगजनी के सब जघन्य अपराध और कुकृत्य करते हैं और कहते हैं कि यह सब धर्म है।

अरे मूर्ख ! तुम्हारे पूर्वजों ने इन कृत्यों को कभी धर्म कहा है ? तुम्हारे शास्त्र भी यह नहीं कहते। जब तूँ ही अपने मुख से कह रहे हो कि “हरि को हर में देख” चाहे वह किसी मजहब का हो, तो घृणित कर्म, धर्म कैसे हो सकता है ? खून-खराबा और पारस्परिक लूट-पाट, महा-पीड़ा, महा-दुःख की जननी बन गयी है। ऐसे कृत्य करने वाले मनुष्य, राष्ट्र या समाज, तरुण युवकों को गुमराह कर धर्म और ईश्वर के नाम पर धूल झोंकने वाले सरीखे जान पड़ते हैं रे ! मनुष्य-मनुष्य में भेद पैदा करते हैं। मनुष्य-मनुष्य के साथ, भाई-भाई के साथ, एक जाति दूसरी जाति वाले के साथ, एक मजहब के अनुयायी दूसरे मजहब के अनुयायियों के साथ धोखा-धड़ी कर खून-खराबा जैसे महाघृणित कृत्य के जन्मदाता बने हुए हैं। क्या यही धर्म है ?

तरुण युवकों ! जागो, आँखें खोलो, देखो ये कौन लोग हैं? इन लोगों को अपने देश, अपने समाज में कोई स्थान न देने की प्रतिज्ञा करो। संकल्प करो।

धर्म ऐसा नहीं होता। स्वप्न में भी धर्म का रूप ऐसा नहीं होता। धर्म एक-दूसरे के साथ मैत्री कारक होता है। स्नेह कारक होता है। धर्म के बारे में और धार्मिकता रखने वालों के बारे में ऐसा सन्देह नहीं करना। धर्म तो संवेदनशील होता है। धर्म वट-वृक्ष सा है। सभी को छाया प्रदान करने वाला है, चाहे वे किसी जाति-मजहब के क्यों न हों। धर्म आदर देने वाला, दिलाने वाला होता है। धर्म के अभाव में विकृति पनपती है। भयावह कलंक जन्म लेता है, पनपता है। धर्म के अभाव में मनुष्य का आचरण सींग वाले पशुओं की तरह हो जाता है। वे पिछले पाँव फेंकने वाले गदहे की तरह हो जाते हैं। ऐसा आचरण करने वाले को तुम विवेकहीन समझना। न वहाँ ईश्वर होते हैं और न वहाँ परमेश्वर होते हैं। न भगवान, न भगवती, न गुरु। वहाँ इनमें से कोई नहीं होता। वे तो वहाँ होते हैं, जहाँ धर्म होता है। वे वहाँ नहीं होते जहाँ कुकर्म, कुकृत्य, एक-दूसरे के साथ घृणा, लूट-पाट, खून-खच्चर होते हैं। इन आततायियों के यहाँ धर्म कहाँ, ईश्वर कहाँ पाये जायेंगे। आज जैसा वातावरण है, वह धर्म नहीं है”।

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