संघर्ष की मिट्टी से बनी सरिता की तक़दीर…..

रायपुर, / गाँव की उस कच्ची पगडंडी पर सरिता बाई नगेशिया अक्सर नंगे पाँव चला करती थीं। धूप कितनी भी तेज़ हो, बारिश कितनी भी ज़ोर से बरस रही हो, या ठंड कितनी भी कड़ाके की हो उन्हें हर हाल में रोज़ की मजदूरी पर जाना ही होता था। उनके लिए दिन का मतलब था सुबह से शाम तक खेतों में मेहनत, और रात का मतलब था अगले दिन के काम की चिंता।

मेरे पास सपने थे, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए साधन नहीं, सरिता बाई अक्सर खुद से कहतीं। दो वक्त की रोटी जुटाने में ही जीवन बीत रहा था। उनके बच्चे स्कूल जाना चाहते थे, मगर किताबों और फीस के लिए पैसे कहाँ थे ? घर की दीवारें कच्ची थीं, और सपनों की नींव भी उतनी ही कमजोर लगती थी। एक दिन गाँव की कुछ महिलाओं ने उनसे सीताराम महिला स्व-सहायता समूह से जुड़ने की बात की। सरिता बाई को यकीन नहीं था कि क्या इससे सच में कुछ बदल सकता है? लेकिन उनके पास खोने को कुछ नहीं था, तो वे जुड़ गईं। धीरे-धीरे वे समूह की बैठकों में जाने लगीं, और वहाँ उन्होंने कुछ ऐसी कहानियाँ सुनीं, जो उनकी अपनी कहानी से मिलती-जुलती थीं। उन महिलाओं ने सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर अपनी ज़िंदगी बदल दी थी।

सरिता बाई ने भी हिम्मत जुटाई और सीआईएफ से लोन लेकर ईंट बनाने का काम शुरू किया। शुरुआत में मुश्किलें आईं, गाँव के कुछ लोग हँसते थे, कुछ ताने मारते थे, और कुछ कहते कि यह काम महिलाओं के लिए नहीं है। लेकिन सरिता बाई ने किसी की बातों पर ध्यान नहीं दिया। मिट्टी गूँधने से लेकर ईंटें पकाने तक, उन्होंने सब कुछ खुद किया। उनका हाथ खुरदरा हो गया, लेकिन आत्मविश्वास पहले से कहीं ज्यादा मज़बूत हो गया।

सरिता बाई अब सिर्फ़ एक मजदूर नहीं, बल्कि एक सफल उद्यमी हैं। वे कहती हैं, पहले मैं दूसरों के खेतों में मजदूरी करती थी, लेकिन अब मैं अपनी मेहनत से खुद का व्यवसाय चला रही हूँ। मैंने अपनी काबिलियत को पहचाना और अपनी तक़दीर खुद लिखी। गाँव की वही पगडंडी, जिस पर वे कभी नंगे पाँव चला करती थीं, अब उन्हें देखकर गर्व से सर उठाकर चलना सिखा रही थी। क्योंकि अब वे सिर्फ़ अपने परिवार की तक़दीर नहीं, बल्कि पूरे गाँव की महिलाओं के लिए एक मिसाल बन चुकी थीं।

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