प्रकृति का कर्ज: संरक्षण से चुकाएं

डॉ. पंकज कुमार ओझा 

बाँदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, बाँदा

प्रकृति हमारी माँ है—वह हमें जीवन देती है, पोषण करती है और हर कदम पर हमारा साथ देती है। हवा जो हम सांस लेते हैं, पानी जो हम पीते हैं, और धरती जो हमें भोजन देती है, यह सब प्रकृति की अनमोल देन है। लेकिन आज हम इस कर्ज को भूलकर प्रकृति का शोषण कर रहे हैं। जंगल कट रहे हैं, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, और हवा जहरीली होती जा रही है। यह समय है कि हम अपने कर्तव्य को समझें और प्रकृति के प्रति अपने कर्ज को संरक्षण के माध्यम से चुकाएं।

प्रकृति का कर्ज: हमारा ऋण

प्राचीन भारतीय संस्कृति में प्रकृति को देवता के रूप में पूजा जाता था। वेदों और उपनिषदों में इसे परम शक्ति माना गया है। ऋग्वेद में एक श्लोक है:

या ओषधी: संनति पुरा जीवन्ति विश्वत: प्रभु:। तासामसि त्वमंगिर: प्राणं विश्वस्य रोचसि।।”(ऋग्वेद 10.97.4)

अर्थ: “हे औषधियों, तुम प्राचीन काल से जीवन को संभालती हो और विश्व की शक्ति हो। तुम प्राण देती हो और संसार को प्रकाशित करती हो।”

यह श्लोक प्रकृति की जीवनदायिनी शक्ति को दर्शाता है। हमारा हर सांस, हर कण प्रकृति का उपहार है। फिर भी, हमने इस कर्ज को नजरअंदाज कर दिया और अपने स्वार्थ के लिए धरती को नुकसान पहुँचाया।

संकट में प्रकृति

आज पर्यावरण संकट एक वैश्विक समस्या बन चुका है। औद्योगीकरण, शहरीकरण और अंधाधुंध संसाधनों का दोहन इसके प्रमुख कारण हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, प्रदूषण के कारण हर साल लाखों लोग असमय मृत्यु का शिकार हो रहे हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण हिमनद पिघल रहे हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, और मौसम चक्र बिगड़ रहा है। जंगल, जो धरती के फेफड़े हैं, तेजी से सिकुड़ रहे हैं। यह सब प्रकृति के प्रति हमारी लापरवाही का परिणाम है।

संरक्षण: हमारा कर्तव्य

प्रकृति का कर्ज चुकाने का एकमात्र तरीका है इसका संरक्षण। हमें अपने जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाने होंगे। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।”(गीता 2.47)

अर्थ: “तुम्हें केवल कर्म करने का अधिकार है, उसके फल की चिंता मत करो।”

यह श्लोक हमें निस्वार्थ कर्म की प्रेरणा देता है। पर्यावरण संरक्षण भी ऐसा ही कर्म है—हमें पेड़ लगाने, पानी बचाने और प्रदूषण कम करने जैसे कार्य बिना किसी स्वार्थ के करने चाहिए।

वृक्षारोपण: पेड़ लगाना प्रकृति के प्रति हमारी सबसे बड़ी सेवा है। एक पेड़ न केवल ऑक्सीजन देता है, बल्कि मिट्टी को बांधता है और जलवायु को संतुलित करता है।  

जल संरक्षण: नदियों और तालाबों को स्वच्छ रखना, वर्षा जल संचय करना हमारी जिम्मेदारी है। जल ही जीवन है, और इसे बचाना हमारा कर्तव्य है।  

प्रदूषण नियंत्रण: प्लास्टिक का कम प्रयोग, वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करना और कचरे का पुनर्चक्रण जैसे कदम उठाने चाहिए।  

जागरूकता: समाज को शिक्षित करना भी जरूरी है ताकि हर व्यक्ति इस संरक्षण अभियान का हिस्सा बने।

प्रकृति और मानव का अटूट रिश्ता

प्रकृति और मानव एक-दूसरे के पूरक हैं। अथर्ववेद में कहा गया है:”माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:।”(अथर्ववेद 12.1.12)

अर्थ: “पृथ्वी मेरी माता है, और मैं उसका पुत्र हूँ।”

यह श्लोक प्रकृति के साथ हमारे गहरे रिश्ते को दर्शाता है। जब हम प्रकृति का सम्मान करते हैं, तो यह हमें दुगुना लौटाती है। लेकिन जब हम इसे नष्ट करते हैं, तो यह हमारे लिए विनाश का कारण बनती है।

प्रेरणा और संकल्प

हमें अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेनी चाहिए, जिन्होंने प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जिया। आज विज्ञान और तकनीक के युग में भी हम संतुलन बनाए रख सकते हैं। हर व्यक्ति को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह अपने जीवन में कम से कम एक पेड़ लगाएगा, पानी की बर्बादी रोकेगा और पर्यावरण को स्वच्छ रखेगा। यह छोटे कदम ही बड़े बदलाव की नींव बनेंगे।

निष्कर्ष

प्रकृति का कर्ज चुकाना हमारा नैतिक और आध्यात्मिक दायित्व है। यह केवल हमारे लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी जरूरी है। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं। जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है:”यत् ते पृथिवि विश्वं रूपं तस्मै ते विश्वरूपाय नम:।।”(यजुर्वेद 13.2)

अर्थ: “हे पृथ्वी, जो तेरा विश्व रूप है, उसको नमस्कार।”

आइए, हम सब मिलकर प्रकृति के इस कर्ज को संरक्षण के माध्यम से चुकाएं और एक हरे-भरे, स्वस्थ और सुंदर संसार का निर्माण करें। यह हमारा कर्तव्य है, हमारा धर्म है, और हमारी सबसे बड़ी पूजा है।

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