विजय विनीत: बनारस का वह कलमकार, जो इश्क़ भी लिखता है और बनारस भी..!!

अमित पटेल :
बनारस—जहां हर गली में एक कहानी है, हर घाट पर एक इतिहास, और हर आदमी में एक कविता। यही बनारस जब किसी पत्रकार की नज़रों से देखा जाता है, तो उसमें सिर्फ़ तीर्थ, मंदिर और मणिकर्णिका की आस्था नहीं दिखती, बल्कि रोज़ कमाने-खाने वालों की जद्दोजहद, रात को गंगा किनारे बुझते दीयों का दर्द और सुबह उगते सूरज के साथ नए सपनों की तलाश भी झलकती है।

बनारस की इन्हीं कहानियों को शब्दों में पिरोने वाले पत्रकार और साहित्यकार विजय विनीत किसी परिचय के मोहताज नहीं। उन्होंने अपनी लेखनी से बनारस की आत्मा को कागज़ पर उतारा है, उसकी खुशबू को लफ़्ज़ों में समेटा है। पत्रकारिता की दुनिया में वह एक ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में ज़मीनी सच्चाई को सबसे ऊपर रखा। वहीं साहित्य की दुनिया में उनकी किताब “मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना” ने यह साबित कर दिया कि पत्रकार सिर्फ़ ख़बरें नहीं लिखते, वे शहर की आत्मा को भी महसूस करते हैं।

बनारस की गलियों से निकला पत्रकार
विजय विनीत का पत्रकारिता सफर आम नहीं था। वह उन रिपोर्टरों में से हैं, जिन्होंने ख़बरों को सिर्फ़ ‘फाइल’ नहीं बनाया, बल्कि हर स्टोरी में ज़मीन पर जाकर लोगों की आवाज़ को समझा और फिर उसे शब्द दिए। बनारस का कोई भी पत्रकार अगर संघर्ष की मिसाल देखना चाहे, तो विजय विनीत की पत्रकारिता को देख सकता है।

उन्होंने अपने रिपोर्टिंग करियर में ग़रीबों, बुनकरों, हाशिए पर खड़े समाज और मज़दूरों की आवाज़ को बुलंद किया। बनारस की गलियों से लेकर दूर-दराज़ के गांवों तक, उन्होंने उन कहानियों को उजागर किया, जिन्हें अक्सर मुख्यधारा की मीडिया अनदेखा कर देती है।

विजय विनीत की रिपोर्टिंग का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि वह ख़बरों को संवेदना के साथ लिखते हैं। उनकी हर रिपोर्ट सिर्फ़ सूचना नहीं देती, बल्कि पढ़ने वाले को भीतर तक झकझोर देती है। उन्होंने कई बार ऐसे मुद्दे उठाए, जो सरकार और प्रशासन के लिए असहज करने वाले थे। बनारस के बुनकरों की दयनीय स्थिति से लेकर गंगा किनारे मज़दूरों की जिंदगी तक—उनकी कलम ने इन विषयों को बार-बार उठाया।

“मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना”: बनारस की धड़कन

पत्रकारिता की दुनिया में नाम कमाने के बाद जब विजय विनीत ने साहित्य की ओर रुख़ किया, तो उनकी लेखनी में वही बनारस झलका, जिसे वह रिपोर्टिंग के दौरान जी चुके थे। उनकी किताब “मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना” सिर्फ़ एक किताब नहीं, बल्कि बनारस की धड़कन है।

इस किताब में उन्होंने बनारस की कहानियों को मोहब्बत के लहजे में पेश किया है। उनकी कहानियों में प्रेम है, जुदाई है, संघर्ष है, और सबसे ऊपर बनारस की आत्मा है। किताब की कहानियां पढ़ते वक्त ऐसा लगता है जैसे घाट पर बैठकर बनारस को देखा जा रहा हो—कहीं कोई प्रेमी अपने बिछड़े प्यार को याद कर रहा है, कहीं कोई ग़रीब मज़दूर अपने दिन के संघर्ष की थकान मिटा रहा है, और कहीं दूर से शाम-ए-अवध की रोशनी झिलमिला रही है।

विजय विनीत की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह बनारस को सिर्फ़ एक तीर्थस्थल नहीं दिखाते, बल्कि उसे ज़िंदा शहर की तरह लिखते हैं, जहां हर दिन कोई नई कहानी जन्म लेती है।

विजय विनीत की रिपोर्टिंग और उनकी साहित्यिक लेखनी के बीच एक गहरा रिश्ता है। उनके लिए पत्रकारिता और साहित्य अलग नहीं, बल्कि एक ही धारा के दो किनारे हैं। उनकी पत्रकारिता ज़मीन से जुड़ी है और उनकी कहानियां उन्हीं ज़मीनी अनुभवों का विस्तार हैं।

उनका मानना है कि “अगर किसी पत्रकार की रिपोर्टिंग में संवेदनशीलता नहीं है, तो वह सिर्फ़ आंकड़े पेश कर रहा है, इंसान की कहानी नहीं।” यही वजह है कि उनकी ख़बरें हों या उनकी किताबें, दोनों पाठकों को सिर्फ़ जानकारी नहीं देतीं, बल्कि उन्हें सोचने पर मजबूर कर देती हैं।

आज जब मुख्यधारा की पत्रकारिता ‘टीआरपी’ की दौड़ में फंसी है, विजय विनीत जैसे पत्रकार यह यकीन दिलाते हैं कि ज़मीनी पत्रकारिता की लौ अभी भी जल रही है। उनकी लेखनी इस बात का सबूत है कि ख़बरें सिर्फ़ ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ नहीं होतीं, बल्कि वे समाज का आईना होती हैं।

उनकी किताबें, उनकी रिपोर्टिंग और उनका साहित्य—सब यह दर्शाते हैं कि अगर कोई पत्रकार अपने शहर की आत्मा को समझे, तो वह इतिहास भी लिख सकता है और भविष्य भी।

विजय विनीत सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि बनारस की उन अनकही कहानियों का दस्तावेज़ हैं, जो नज़रों से ओझल हो जाती हैं, लेकिन दिलों में हमेशा ज़िंदा रहती हैं।

फरवरी: जब खुद कविता बन जाता है बनारस

वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत लिखते हैं कि अगर कभी बनारस आना हो, तो फ़रवरी में ज़रूर आइए। बनारस को इस महीने में देखना, महसूस करना, जीना—यह किसी आत्मा के गहरे कोनों में उतरने जैसा है। सालभर की भागदौड़ के बाद जैसे कोई बूढ़ी मां अपने बेटे की राह देखती हो, वैसे ही बनारस फ़रवरी के इंतज़ार में रहता है। और जब यह महीना आता है, तो शहर अपने सबसे सुंदर रूप में खिल उठता है—एक ऐसी ख़ूबसूरती जो शब्दों से परे है, जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है।

फ़रवरी आते ही बनारस की हवाओं में कोई पुराना राग घुल जाता है। गलियों में धूप ऐसे बिछती है जैसे मां के आंचल की छांव, घाटों की सीढ़ियाँ ठंडी नहीं, किसी पुराने दोस्त की तरह आत्मीय लगती हैं। तुलसी चाय की हल्की-सी सुगंध और गंगा की सतह पर बिछी सुनहरी धूप—यह नज़ारा दिल के किसी कोमल कोने को छूकर निकल जाता है। यह महीना बनारस को एक अलग ही आत्मा से भर देता है।

शहर को सुनने की कोशिश कीजिए…

अगर आप इस शहर को समझना चाहते हैं, तो सिर्फ़ देखिए मत, इसे सुनिए। चेतसिंह घाट की ठंडी सीढ़ियों पर बैठिए और कबूतरों की गुटरगूं सुनिए। मणिकर्णिका पर जलती चिताओं के बीच गंगा की लहरों से उठती हल्की सरसराहट को महसूस कीजिए। आस-पास की मंदिरों की घंटियां, अजान की गूंज, किसी पंडित के श्लोकों की ध्वनि, और घाट पर थककर बैठे किसी प्रेमी जोड़े की धीमी बातचीत—यह सब मिलकर बनारस का संगीत रचते हैं।

बनारस का मौन भी यहां बोलता है, मगर इसे सुनने के लिए आपको अपने भीतर के शोर को कम करना होगा। फिर देखिए, यह शहर आपको अपने कंधों पर बिठाकर एक ऐसी यात्रा पर ले जाएगा, जहां से लौटना आसान नहीं होगा। बनारस की हवाएं इस महीने रबाब के तारों जैसी बजती हैं—हल्की, मधुर, और गहरी। सुबह-सुबह जब आप किसी घाट पर चुपचाप बैठेंगे, तो एक मीठी-सी सिहरन आपके भीतर उतरने लगेगी। हवाओं में घुली यह ठंडक आपको किसी भूले-बिसरे प्रेमपत्र की तरह लगेगी, जिसे आपने कभी लिखा था मगर भेजा नहीं।

फ़रवरी में गंगा का जल किसी पुराने दर्पण की तरह चमकता है। उसमें डूबता सूरज ऐसा लगता है जैसे किसी संत ने वर्षों की तपस्या के बाद एक आखिरी मुस्कान दी हो। घाटों पर गेरुए वस्त्र पहने साधु, उनके पास बैठे कुछ विदेशी पर्यटक, और नदी की सतह पर धीरे-धीरे बहती नावें—यह सब मिलकर बनारस को एक ऐसा चित्र बना देते हैं, जिसे कोई भी कलाकार कागज़ पर पूरी तरह उतार नहीं सकता।

कभी घाटों पर बैठकर सोचिए…

सुबह-सुबह अस्सी घाट पर निश्चल भाव से बैठ जाइए। सामने बहती गंगा और किनारे जलती अगरबत्तियों की महक—इन सबके बीच आपको अपना ही मन धीरे-धीरे हल्का होता महसूस होगा। एक-एक घूंट तुलसी चाय का लीजिए और अपने सीने से दुनिया भर का बोझ उतार फेंकिए। यह शहर आपको किसी भी धर्म, किसी भी पहचान से अलग कर देगा, और आप सिर्फ़ एक आत्मा बनकर यहाँ बैठ जाएंगे—शांत, निर्विकार।

फ़रवरी में यह शहर अचानक गुलमोहर-सा चटक उठता है। पुरानी हवेलियों की दीवारें, गलियों में टंगे लाल पीले कपड़े, घाटों पर सूखती रंग-बिरंगी धोती—सबकुछ जैसे किसी उत्सव का हिस्सा हो। यहाँ प्रेमी जोड़े हाथ में हाथ डाले चलते हैं, और पुराने साधु अपनी धूनी रमाए हुए कहीं दूर अतीत में खोए रहते हैं।

और फिर एक दिन… जब आप बनारस से वापस लौटेंगे, तो यह शहर आपके साथ आएगा। आपकी सांसों में, आपकी यादों में, आपके भीतर कहीं बहुत गहरे तक!आपको लगेगा कि बनारस सिर्फ़ एक शहर नहीं, एक एहसास है, जो हर बार आपको फिर से बुलाएगा। तो अगली बार जब बनारस आएं, तो सिर्फ़ घूमने मत आइए…बैठिए, रुकिए, सुनिए—क्योंकि बनारस को देखने से ज्यादा ज़रूरी है इसे महसूस करना…!!!

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