स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और पर्यावरण अनुकूल मिट्टी के घड़े का पानी

प्रयागराज। नैनी स्थित आरोग्य आश्रम एवं आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान के आयुर्वेदाचार्य डाक्टर नरेंद्र नाथ केसरवानी ने बताया कि आज जब बाजार आधुनिक तकनीक से बने फ्रिज से भरे पड़े हैं, तब भी मटका अपनी उपयोगिता और महत्व को साबित करता है। यह प्राकृतिक तरीके से पानी को ठंडा करता है। गर्मी में मटके का पानी जितना ठंडा और सुकूनदायक होता है, स्वास्थ्य के लिए भी उतना ही लाभदयक होता है। इसके पानी में रोगों से लड़ने की क्षमता के साथ ही कुछ बीमारियां भी दूर होती हैं। डा केसरवानी ने बताया कि घड़े में रखा पानी पोषक तत्वों-विटामिन और खनिजों से भरपूर होता है जो शरीर को लू से बचाते हैं। यह पानी शरीर में ग्लूकोज के स्तर को भी बनाए रखता है। इसमें कई प्रकार के खनिजों जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम और पोटेशियम और आयरन से भरपूर होता है, जो शरीर को हाइड्रेट करने में मदद करते हैं। घडे का ‘अल्कलाइन पानी’ जिसका पीएच सात से अधिक होता है और क्षारीय गुणों से भरपूर होता है, पीने से एसिड रिफ्लक्स से राहत मिलती है। यह पानी शरीर के एसिड-बेस बैलेंस को बनाए रखने में मदद कर सकता है, जिससे एसिडिटी की समस्या कम हो सकती है।

उन्होंने बताया कि घड़े का पानी गले को तरावट तो पहुंचाता ही है साथ ही यह पाचन क्रिया को भी बेहतर बनाता है। गैस्ट्रिक और एसिडिटी की शिकायत दूर होती है और शरीर में टेस्टोस्टेरॉन का स्तर भी बढ़ता है।  यह पाचन तंत्र को बेहतर रखने, शरीर को हाइड्रेट करने और त्वचा के लिए लाभादायक होता है। फ्रिज के पानी में क्लोरीन और अन्य रसायन हो सकते हैं जबकि घडे का पानी इनसे मुक्त होता है। यह गले के संक्रमण, जुकाम जैसी समस्याओं से भी बचाव करता है, जो बहुत ठंडे पानी से हो सकती हैं।  गांवों से लेकर शहरों तक मटका हर घर में गर्मी का एक सस्ता, टिकाऊ और स्वास्थ्यवर्धक समाधान है। केसरवानी ने बताया कि मटके की मिट्टी में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। जब हम घड़ा भरते हैं, तो मटका धीरे-धीरे पानी को बाहर की ओर हवा की तरफ छोड़ता है। इस प्रक्रिया को वाष्पीकरण (इवेपोरेशन) कहते हैं। जब पानी बाहर की हवा में वाष्प बनता है, तो यह पानी की ऊर्जा को ग्रहण करता है और उसके साथ पानी का तापमान कम हो जाता है, जिससे मटका का पानी ठंडा रहता है। गर्मी के मौसम में जब बाहर की हवा गर्म होती है, तो वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज हो जाती है और पानी तेजी से ठंडा होता है। उन्होंने बताया कि घड़ा के बाहर का हिस्सा सूरज की गर्मी से गर्म हो जाता है, लेकिन वह गर्मी अंदर की तरफ नहीं पहुंच पाती। इसका अंदरूनी भाग बहुत ठंडा रहता है, और इस ठंडक के कारण अंदर का पानी भी ठंडा रहता है। यह प्रकिया प्राकृतिक कूलिंग सिस्टम की तरह काम करती है। यह स्वास्थ्यवर्धक और पर्यावरण अनुकूल है। 

प्रजापति समाज लंबे समय से मिट्टी के बर्तन बनाने की पारंपरिक शिल्पकला से जुड़ा रहा है। आधुनिक तकनीक, प्लास्टिक के बढ़ते चलन के साथ तमाम झंझावतों के बीच प्रजापति समाज के कुम्हारों का यह पेशा काफी हद तक सिमट गया है। गर्मी का प्रकोप बढ़ते ही “गरीबों की फ्रिज” टोटी वाले घडे और डिजाइनर सुराही  की भारी मांग से कुम्हारों को रोजगार मिला जिससे उनके चेहरे एक बार फिर खिल गए हैं। प्रयागराज के झूंसी, फाफामऊ और तेलियरगंज क्षेत्रों में रहने वाले कई कुम्हार परिवार अब दिन-रात मटके बनाने में जुटे हैं। कुम्हारों का आरोप है कि उनसे अधिक मुनाफ बिचौलिये कमा रहे हैं। उनसे 150 रूपए मटका और 60-70 रूपए में सुराही खरीद कर  उपभोक्ताओं को 300 से 350 रूपए में मटका और 150-200 रूपए में सुराही बिक्री करते हैं। बाजार में टोटी लगे और सादे दोनो की मांग है। खासकर टोटी लगे मटके और डिज़ाइनर सुराहियों की बाजार में अच्छी मांग है। मिट्टी की समस्या, घडे या मिट्टी के अन्य बर्तनों को पकाने के लिए कच्चे ईंधन के मूल्यों में भारी इजाफा के साथ शारीरिक श्रम को देखते हुए उतना लाभ नहीं मिलता जितना मिलना चाहिए।

तेलियरगंज निवासी बलकरन प्रजापति ने बताया, पिछले साल की तुलना में इस बार दोगुने मटके बिक रहे हैं। लोग टोटी वाला मटका ज्यादा पसंद कर रहे हैं, वह दिखने में भी अच्छा लगता है और उपयोग में भी आसान है। उन्होंने बताया कि मिट्टी के घड़े बनाने के लिए दोमट मिट्टी सबसे बेहतर मानी जाती है। यह मिट्टी चिकनी, रेत और गाद का मिश्रण होती है, जो घड़ा बनाने के लिए आदर्श होती है। दोमट मिट्टी में पानी और हवा का सही संतुलन होता है, जिससे घड़ा मजबूत बनता है और पानी को ठंडा रखने में भी मदद करता है। एक अन्य बुजुर्ग सुखई प्रजापति ने बताया कि  वर्तमान में इनके द्वारा निर्मित मिट्टी की कलाकृतियां आकर्षण की केंद्र तो हैं लेकिन प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा सुधि नहीं लिए जाने तथा मिट्टी एवं ईंधन की सुविधा प्रदान न होने के कारण कुम्हारी कला पर ग्रहण लगता जा रहा है। वहीं प्लास्टिक के प्रचलन ने इस कला को पूर्णरूप से सिमटने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने अपनी तकलीफ को इस प्रकार बयां किया “माटी के बर्तन के दाम मटिये बराबर, पेट पाले की चिंता में लइकन के ना पढ़वनी।”

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से इतिहास में बैचलर और काशी विद्यापीठ से सोशल वर्क में परास्नातक डिग्री हासिल करने वाले शैलेश मिश्र ने बताया कि कुम्हारी कला का इतिहास मानव सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है। उन्होंने बताया कि इतिहास में मृदभांड के अवशेष  मोहनजोदडो-हडप्पा की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। मृदभांड अनाज और पानी रखने के उपयोग में आता था। मिश्र ने बताया कि यह एक ऐसी कला है जो समय के साथ विकसित हुई है और आज भी दुनिया भर में जीवित है। आज के दौर में जब ऊर्जा संकट और पर्यावरण संरक्षण की बातें हो रही हैं, मटका जैसे स्वदेशी विकल्पों का महत्व और भी बढ़ गया है। यह न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है, बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी अनुकूल है, इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मटका आज भी देसी फ्रिज से कम नहीं है। यह सस्ता, टिकाऊ, पर्यावरण मित्र और स्वास्थ्यवर्धक है।

कुम्हारी कला भारतीय संस्कृति की विशिष्ट धरोहर है। इस कला से जुड़े परिवारों को हमें संभाल कर रखना होगा। उन्होंने कहा कि सरकार भी कुम्हारी कला को बढ़ावा देने के लिए संकल्पित है। मानव सभ्यता के विकास में कुम्हारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर में ही हुआ है। इन्हें उच्च कोटि का शिल्पकार वर्ग माना गया है। सभ्यता के आरंभ में दैनिक उपयोग के सभी वस्तुओं का निर्माण कुम्हारों द्वारा ही किया जाता रहा है। मिश्र ने बताया कि समय के साथ, कुम्हारी कला विकसित होती गई और विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग रूप लेती गई। अन्य साक्ष्यों के साथ, मिट्टी के बर्तनों का अध्ययन उन समाजों के संगठन, आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक विकास पर सिद्धांतों के विकास में सहायक है, जिन्होंने मिट्टी के बर्तनों का उत्पादन या अधिग्रहण किया था। मिट्टी के बर्तनों के अध्ययन से किसी संस्कृति के दैनिक जीवन, धर्म, सामाजिक संबंधों, पड़ोसियों के प्रति दृष्टिकोण, अपनी दुनिया के प्रति दृष्टिकोण और यहां तक कि संस्कृति द्वारा ब्रह्मांड को समझने के तरीके के बारे में भी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

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