विभिन्न भाषा, संस्कृति व परम्पराओं का भी संगम है महाकुंभ – सूर्याचार्य

महाकुंभनगर।{ मनोज पांडेय } दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मानव समागम महाकुंभ में केवल तीन नदियों का ही संगम नहीं है बल्कि यह विभिन्न भाषा,संस्कृति, एवं परम्पराओं का भी संगम है। शैव संप्रदाय के श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े के जगद्गुरू सूर्याचार्य कृष्णदेवनंद गिरि महाराज ने बताया कि भारत की राष्ट्रीयता का आधार वसुधैव कुटुंबकम का चिंतन रहा है। संगम तट पर विभिन्न संस्कृतियों, भाषा और परंपरा को मिलते देख ‘लघु भारत’ के दर्शन का बोध होता है। प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है जहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता हैं। मत्स्यपुराण में लिखा है कि साठ सहस्त्र वीर गंगा की और स्वयं भगवान भास्कर जमुना की रक्षा करते हैं। यहाँ जो वट है उसकी रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं। पांच कुंड हैं जिसमें से होकर जाह्नवी बहती है। माघ महीने में यहाँ सब तीर्थ आकर वास करते हैं। इससे यह महीने पुण्य का फलदायी बताया गया है।

उन्होंने बताया कि भारत ने सदैव समूचे विश्व को एक परिवार के रूप में देखा है। भारत सभी के सुख और निरामयता की कामना करता रहा। भारत की यह पहचान मानव समूहों के संगम, उनके सम्मिलन और सह अस्तित्व की लंबी प्रक्रिया से निकल कर बनी है। हम सहिष्णुता से शक्ति पाते हैं बहुलता का स्वागत करते हैं और विविधता का गुणगान करते हैं। यह शताब्दियों से हमारे सामूहिक चित्त और मानस का अविभाज्य हिस्सा है। यही हमारी राष्ट्रीय पहचान है।

उन्होंने बताया कि मेला देश की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधताओं को पल्लवित करने के साथ सामाजिक समरसता, एकता और सद्भाव बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। दूर दराज से संगम आने वाले श्रद्धालुओं की संस्कृति, भाषा, पहनावा भले ही भिन्न हो लेकिन उनकी मंशा एक ही होती है। वह भले ही एक दूसरे की भाषा नहीं समझते लेकिन उनकी भाव-भंगिमा एक दूसरे से मितव्यता पूर्वक जोड़ती है। किसी के मन में एक दूसरे के प्रति राग और द्वेष नहीं रहता।

यहां पर दान, ध्यान और अन्य धार्मिक कार्यों के करने से एक प्रकार से पुर्नजन्म होता है। क्योंकि परिवार और भौतिक सुखों का प्ररित्याग कर संगम तट पर एक माह का कल्पवास एक कठिन साधना है। प्रयाग संगम में राजा-रंक, स्वस्थ्य-अस्वस्थ्य, पंगु और कोढ़ी, हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि सभी श्रद्धा से ओतप्रोत हो आस्था की डुबकी लगाते हैं।

उन्होंने बताया कि महाशिवरात्रि फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को हर साल मनाई जाती है। महाकुंभ के अंतिम स्नान महाशिवरात्रि एक दुर्लभ खगोलीय घटना का साक्षी बन रहा है। यह महासंयोग कई वर्षों के बाद आता है। इसके चुंबकीय प्रभाव से ग्रहों की नकारात्मकता कम हो जाएगी। विश्व में शांति, सद्भाव और खुशहाली आएगी। उन्होंने बताया कि महाशिवरात्रि पर श्रद्धालुओं को आराध्य देव भोलेनाथ का रूद्र जप करना चाहिए। बिल्वपत्र, धतूरा, दूर्वा और पुष्प अर्पित कर उनका विधि विधान से पूजन करना चाहिए। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव के साथ मां पार्वती की विधिवत पूजा करने का विधान है। इस दिन शिव जी की चारों प्रहर में पूजा करने का विधान है।

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