सोनभद्र, सिंगरौली/ एनटीपीसी-विंध्याचल के उमंग भवन सभागार में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार एवं एन टी पी सी, विंध्याचल के सहयोग से ख्यातिलब्ध रंग संस्था समूहन कला संस्थान के तीन दिवसीय समूहन नाट्य समारोह के आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम निदेशक (समूहन कला संस्थान) राजकुमार शाह एवं उनकी टीम के माध्यम से किया गया।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि परियोजना प्रमुख (विंध्याचल) ई सत्य फणि कुमार, अध्यक्षा सुहासिनी संघ, श्रीमती सरोजा फणि कुमार, विशिष्ट अतिथि महाप्रबंधक(प्रचालन एवं अनुरक्षण) राजेश भारद्वाज, उपाध्यक्षा सुहासिनी संघ श्रीमती सुभा भारद्वाज के साथ-साथ सभी महाप्रबंधकगण, विभागाध्यक्ष, उप कमांडेंट (सीआईएसएफ) शिव कुमार कुमावत, सुहासिनी संघ की पदाधिकारी एवं सदस्याएँ, राजभाषा विभागीय प्रतिनिधि एवं यूनियन एवं एसोसिएशन पदाधिकारीगण सम्मिलित हुये। साथ ही Press & Electronic Media के प्रतिनिधि, वरिष्ठ अधिकारी, कर्मचारी एवं उनके परिवारजन उपस्थित रहें।
यह नाट्य समारोह, पारिवारिक मूल्यों में भौतिकता के कारण आयी गिरावट का जीवंत चित्रण करती नाट्य प्रस्तुति “हंसुली” का हृदयस्पर्शी मंचन लोगों के दिलों में उतरने में सफल रही। रंगमंचीय फलक पर एक सुखद मंचन की अनुभूति कराती नाटक हंसूली भारतीय सयुंक्त परिवार की पृष्ठभूमि में तीन पीढ़ियों के आपसी द्वन्द को भौतिकता के प्रभाव से परिवार में मूल्यों के क्षरण को दर्शाता है। नाटक के पात्र बांके और माया अपनी माँ चिन्ता के साथ अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहे है। परिवार की पुश्तैनी निशानी हंसूली को माया अपनी सास से हरहाल में पाना चाहती है, जो उसे परिवार की सत्ता पर काबिल रख सके। माया की ननद शीला का हस्तक्षेप भी उसे बर्दाश्त नहीं होता, पर निर्धन के पूर्व चिन्ता माया को हंसूली सौंप देती है। आगे चलकर वक्त अपने आप को दोहराता है जब माया की दोनों बहुओं का हंसूली पाने के लिए द्वन्द चरम पर पहुँच जाता है तो परिवार की इज्जत तार-तार हो जाती है और मामला पंचायत में पहुँच जाता है। पारंपरिक मूल्यों और संस्कारों को ढहता देख माया भरी पंचायत में यह प्रश्न खड़ा करती है कि जो भाई अपने भाई का नहीं हुआ, जो देवरानी अपनी जेठानी की नहीं हुई वो हमारी कैसे होगी, ऐसे हम बूढ़े माँ बाप का क्या होगा?
कहानीकार डॉ अखिलेश चन्द्र की लिखी कहानी पर राजकुमार शाह द्वारा रूपांतरित नाट्य आलेख उन सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों पर सोचते पर मजबूर करता है कि माँ-बाप कुछ भी करके बच्चों को खुशियां देना चाहते है, उन्हे सशक्त बनाते हैं पर आज जब माँ-बाप अशक्त हैं तो उन्हे उनकी परवाह नहीं हैं। भौतिकता की चाह में पीस रहे खून के रिश्तों को बड़ी ही मार्मिकता से रेखांकित करने में नाट्य रूपान्तरकार और निर्देशक राजकुमार शाह अपने निर्देशकीय शिल्प और परिकल्पना से रोंगटे खड़ा कर देता है और दर्शकदीर्घा स्तब्ध है। अभिषेक कुमार गुप्ता का रंग संगीत, निर्देशक की दृश्य संरचना और मो0 हफीज का प्रकाश संयोजन नाटक की कहानी ही नहीं, उसकी आत्मा को भी आलोकित करती है।
माया और बांके के रूप में रिम्पी वर्मा, नवीन चन्द्रा, दोनों बेटों और बहुओं की भूमिका में अजय कुमार, सुनील कुमार, गंगा प्रजापति, रितिका सिंह ने अपने बेजोड़ अभिनय से प्रभावित करने में सफल रहे। कथावाचक की भूमिका में स्वयं निर्देशक राजकुमार शाह दर्शकों से सीधे संवाद करते हुये उन्हे भावनात्मक रूप से बहा ले गए। आद्या मिश्रा, मनीषा प्रजापति, वैभव बिन्दुसार और राजन कुमार झा ने अलग-अलग भूमिकाओं में और भोला काका के रूप में रूपनारायन सराहनीय रहे। संगीत वाद्यकारों में तबले पर गौरव शर्मा, बांसुरी पर अभिषेक सिंह और हारमोनियम पर संगीत निर्देशक अभिषेक कुमार गुप्ता नाटक को ठोस धरातल देने में सफल रहे, लोक संगीत सोहर, होरी का भी सुन्दर प्रयोग हुआ। कला पक्ष में रतन लाल जयसवाल ने कुशल योगदान दिया। प्रस्तुति वर्तमान में उच्च शिक्षा और उच्च अर्थोपार्जन के लिए घर से दूर होने और संस्कारों और मूल्यों को खो देने की संवेदनहीनता को बड़ी सुदृढ़ता से रेखांकित करता है। समारोह के दूसरे दिन नाटक “सुन लो स्वर पाषाण शिला के” का मंचन होगा।