डा. स्नेहलता पाठक
रविवार का दिन । सुबह सुबह शर्मा जी पधार गये । आते ही बोले – और बताइये क्या लिखा है । मैंने कहा -”आम आदमी और हंसी“ पर व्यंग्य लिखा है । बोले सुनाइये । मैंने सुनाया । पूछा – कैसा लगा ? वे बोले – बेकार, एकदम सारहीन । क्यों मैंने पूछा । वे बोले – भई न तो इसमें सरकार है, न राजनीति और न नेता । अरे इनको छोड़ो आम आदमी तक का जिक्र नही है । मैंने कहा – आप बात बात में आम आदमी को क्यों घसीट लाते है । वे मेरी मूढ़ता पर झल्ला कर बोले आप समझे नहीं । बिना बेस के पिज्जा खा सकते हो क्या ? नहीं मैंने गर्दन हिलाई । फिर बिना बेस के राजनीति कैसे होगी । राजनीति का बेस तो आम आदमी ही है । आम आदमी है तो शोषण है, भ्रष्टाचार है, नेता हैं उनके कारनामें हैं । इसमें से आम आदमी को हटा दो तो बचा क्या ? शर्मा जी का अनुभव एकदम पक्का था । वे राजनीति के पुराने खिलाड़ी जो ठहरे ।
मैंने फिर भी कहा कि शर्मा जी पाठक परिवर्तन चाहता है । इसलिये मैंने हटकर विषय चुना है। आप ये क्यों भूल जाते हैं कि ये विषय भी राजनीति से ही निकलकर आया है । आजकल राजनीति को हासिये में डालकर न कुछ सोचा जा सकता है न लिखा जा सकता है । वे फिर भड़के । बोले कैसे? मैंनं कहा – इसलिये कि आज से पहले हँसी की इतनी शार्टेज पहले कभी नहीं रही । पहले एकतंत्र था तब भी लोग खूब ठहाके लगाते थे । आज लोकतंत्र है फिर भी आम आदमी के जीवन से हँसी गायब है ।
हँसी के मामले में पहले स्वर्णिम युग था जब हम अभावो में भी हँसने का मौका नहीं चूकते थे । माना कि हम गरीब थे पर दिल के बड़े अमीर थे । बात बात में हंसी मजाक, चुटकुले घर में घुसी गरीबी को अनदेखा किया करते थे । तब हमारी संस्कृति हास्य प्रधान संबंधों को लेकर बहुत धनी थी । ननद भौजाई, देवर भौजाई, जीजा साली जैसे संबंधों की हंसी मजाक से घर में खुशहाली का प्रकाश फैला रहता था । हंसना गुनगुनाना काम के सहयात्री थे । भैंस दुहते समय, चौका वासन करते समय, दही विलोते हुये गीत ही तो थे जो थकान हर लिया करते थे ।
जब से सरकार ने देश के महत्वपूर्ण निर्णय रात के अंधेरे में लेना शुरू कर दिया है तब से आम आदमी डरपोक सा हो गया है । रात को दहशत का तकिया उसे ठीक से सोने भी नहीं देता । वह आशंकित रहता है कि पता नहीं सबेरे अखबार में कौन सा नया फरमान छप जाये । यूं तो सरकार खुले आम कहती है कि पूरा का पूरा देश आम आदमी का ही है । सरकार तो सेवक होती है । साथ में यह भी संकेत करना नहीं भूलती कि जब देश आम आदमी का है तो उसका भी जो कुछ भी है सब देश का है । जैसे माता पिता की सारी कमाई उसकी संतानों की होती है ।
इसी दहशत में बेचारी की निदिया बैरन हो गई है । वह इसी गुणा भाग में लगी रहती है कि पता नहीं कब मेरा, सब कुछ तेरा हो जाये । किसी ने सच ही कहा है कि आम आदमी स्ट्रीट डॉग होता है रफ एंड टफ । जैसा चाहो वैसा ट्रीट करो । पर सरकार पामेरियन होती है । जनता के माल पर सुख सुविधाओं का भोग करने वाली । आम आदमी इसी चिंता में हँसना तक भूल गया है । घर में बच्चे भी हँसकर बात करते हैं तो वह झल्ला पड़ता है । घरों में मेहमानो का स्वागत भी बिना खिलखिलाये औपचारिक रूप से होने लगा है । सभी हास्य क्लब धीरे धीरे अनुलोम विलोम में बदल गये है । टी.वी. के लाफ्टर चैनल भी घरों में बंद हो गये है । काम करते करते गुनगुनाने वाली गृहिणियों की आवाज कब से बंद हो गई है । मार्निंग वॉक पर अट्टहास करते आम आदमी गरदन लटकाकर घूमने लगे है । तब ऐसा होना वाजिब भी हो जब अपना देश बेगाना सा लगने लगे ।ऐसे समय सालो पहले लिखे गीत की ये पंक्तियों बरबस याद आ जाती है – ”चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना ।“
कल का मनोरंजन आज शंका का कारण बन गया है । पहले हंसी हृदय की उदात्तता की प्रतीक होती थी । आज वही वैमनस्यता, ताने और अपमान का प्रतीक भी बनती जा रही है । जब वह चौक चौराहों पर हंसते हुये नेताओं के पोस्टर देखती है तब उसे अपनी खुशी पर खिशियाहट सी होने लगती है ।वह समझ जाती है कि कोई एक ही हंस सकता है या तो नेता या आम आदमी । न जाने कौन सा अघोषित भय का साया मंडराने लगा है जिसने आम आदमी की हँसी पर डाका डाला है । जमाना हो गया वह खुलकर फुर्सत में हंस नहीं पाया । हंसेगा भी कैसे ? मँहगाई उसके आंगन में पैर पसार कर बैठ गई है। बेरोजगारी ने घर में झाड़ू लगा दी है । पहले आदमी मुट्ठी में पैसे लेकर जाता था थैला भर सामान लाता था । आज थैला भर पैसों में मुट्ठी भर सामान लाता है । गिनाने के लिये तो हमने बहुत प्रगति कर ली है । घर बैठे दुनियाँ के संपर्क में आ गये हैं । मगर क्या कारण है कि पहले जैसी हँसी खुशी बचाकर नहीं रख पाये । संबंधों में अजीब सा सन्नाटा छा गया है । परिवार में सारे सदस्य एक दूसरे से अजनबी हो गये हैं । कभी कभी लगता है जैसे रस्म अदायगी की जिंदगी जी रहे है । पहले हम चटनी रोटी खाकर भी संतोष की डकार लेते थे । आप छप्पन भोग खाकर भी डकार नहीं आती । लगता है जैसे एक दूसरे की हंसीखुशी देख देखकर हम असहिष्णु होते जा रहे है । दूसरों की खुशियों में आग लगाने की कोशिश में हम अपनी खुशियों में से आग लगा बैठे है । पैसा फेककर हंसी खरीदी नहीं जा सकती इतिहास इस बात का गवाह है ।
हमारे पड़ोसी सेठजी है । उनके बंगले में सुख सुविधाओं का हर सामान मौजूद है मगर सेठजी उदास बैठे रहते हैं । पूछा तो बताया कि क्या करें सौ बलाये मेरे पीछे लगी हैं । इतनी बड़ी प्रापर्टी, देख रेख की चिंता, नफा नुकसान का हिसाब किताब, आवारा औलाद एक हो तो गिनाऊँ ? मैंने कहा ये सब तो चलता ही रहता है आप सुबह सैर पर निकलिये । व्यायाम कीजिये । ठहाके लगाइये । लोगों से मिलिये जुलिये सब ठीक हो जायेगा । वे बोले -मुझे तो याद भी नहीं है कि आखिरी बार कब और क्यों हँसा था । जब कभी दूसरो को हंसते देखता हूँ तो कोशिश करके भी हंसी ओठों के बाहर नहीं आती । बाहर हँसों तो सी.सी. कैमरे का भय । घर में हंसो तो बीवी का भय । वह कहती है पता नहीं लोग कैसे हँस लेते हैं । घर के हाल बेहाल है । घर में घुसे इंटरनेट ने घर की संस्कृति पर कुठाराघात कर दिया है । बाहर देखों तो चारों तरफ टैक्सों की बौछार । इधर भी टैक्स उधर भी टैक्स । जहाँ देखो टैक्स ही टैक्स । आदमी जन्म से मृत्यु तक टैक्स की कव्हरेज में आ गया है । जन्म लेना तो मंहगा था ही अब मरण भी मँहगा हो गया है । पहले आधारकार्ड दिखाव मृतक का । वह देश का नागरिक हैं कि नहीं । अगर है तो यह भी देखा जायेगा कि कोई केस तो नहीं चल रहा है । जांच होने के बाद ही लाश जलेगी । अफवाह है कि अब हंसी का भी मीटर लगने वाला है । सन्नाटा छा गया है चारों तरफ । पड़ोसी ने पड़ोसी को देखकर हँसना बंद कर दिया है । घर में आये मेहमानों का हंसकर स्वागत करना छोड़ दिया है । पति पत्नी भाई बहन जैसी औपचारिक बात करने लगे हैं । माँओं ने बच्चो को समझाना शुरू कर दिया है कि बेटा रास्ते में अंकल आंटी मिले तो हँसकर नमस्ते मत करना वरना जीएसटी लग जायेगा। बच्चा पूछता है । मम्मी जीएसटी किसी बीमारी का वायरस है क्या ? मम्मी कहती है, हाँ बेटा ये पैसों का वायरस, जो वायरल होकर केवल आम आदमी को टच कर रहा है । अजीब सी हालत हो गई है आम आदमी की । वह सशंकित सा रहने लगा है कि पता नहीं कब कौन सी बात देशद्रोह मान ली जाये ।
दहशत के गुबार से पूरा देश धुआँ धुआँ हो रहा है । लोगों ने एक दूसरे को पहचानना बंद कर दिया है । देश की संस्कृति पर होते हुये हमले को देख कुछ जवाबदारों ने चिंता व्यक्त की है । अगर देश का यही हाल रहा तो सदियों से चली आ रही हास्य की विरासत से हमें हाथ धोना पड़ेगा ।
अतः कुछ गंभीर किस्म के लोगों ने यह तय किया कि जो चीजें गायब होने के कगार पर हैं उन्हें दिवस के रूप में मनाने लगे हैं । जैसे – मातृ दिवस, पितृ दिवस, पर्यावरण दिवस, वृद्ध सद्भावना दिवस, एकता दिवस आदि । लोगों का कहना है कि हँसी जिंदगी का टॉनिक है । जिंदगी की खूबसूरती है । बातों की सरसता है । भाषा की कोमलता हैं । संबंधों की मधुरता है । मित्रता का उपहार है । बुराई का अंत है । साहित्य का रस है । हँसी के बिना खुशहाल जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
अतः हँसी को अपनी जिंदगी में जीवित रखने के लिये अन्य दिवसों की तरह ”हंसी दिवस“ भी मनाया जाना चाहिये।