बाल मन पर पड़ता प्रभाव

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    गाँधी जी की जीवनी पढ़ रहा था और पढ़ने पर पाया की मोहन दास नामक बालक बचपन में सत्यवादी राजा हरिचन्द्र नामक चल-चित्र देखने पर पुरे जीवन सत्य बोलने का प्रण कर लेता हैं और सत्य के मार्ग पर आजीवन चल पड़ता है फिर विचार आता है कि आजकल के कोमल मन वाले बच्चों पर स्मार्टफोन के हिंसक गेमों, टीवी चैनल के अनेकों धारावाहिकों का उनके बचपन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
         आज के दौर में बच्चों के जीवन शैली को देखता हूं तो पता हूं कि उनका अधिकांश बचपन स्मार्ट फोन और टीवी पर व्यतीत होता है। इसके ज़िम्मेदार ईश्वर रूपी नन्हे बालक ही नहीं,अपितु उनके अभिभावक भी हैं। जो कामकाजी होने पर भी संयुक्त परिवार के जगह एकल परिवार में विश्वास रखते हैं और बच्चों को मनोरंजन के लिए उन्हें मोबाइल और टीवी के सामने बैठा देते है खुद लग जाते हैं अपने दूसरे कामों में, बच्चा भी एकल परिवार में नाना-नानी और दादा-दादी के कहानी, प्यार और संस्कार की तो दूर कि बात मां के लोरी से भी वंचित हो बंद कमरें में मोबाइल और टीवी के साथ अपना बचपन गुजार देता है।
       अभिभावक सोचते हैं कि जब तक बच्चा स्मार्ट फोन, टीवी पर फंसा हैं तब तक जरूरी काम निपटा ले लेकिन उन्हें इसका तनिक भी आभास नहीं होता की उनके कामों के साथ-साथ उनके बच्चों का नाज़ुक बचपन भी निपट रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1 से 5 साल के बच्चों में शारीरिक विकास तेजी से होता हैं और मोबाइल टीवी पर समय बिताने के कारण वो बाकी अलग-अलग खेलों से दूर होते जाते हैं जिससे उनके शरीर का संर्वांगीण विकास नहीं हो पता।
          दिल्ली स्थित, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 5-15 वर्ष की आयु वर्ग के 17 प्रतिशत बच्चे मायोपिया (निकट दृष्टि दोष) से पीड़ित हैं। ये रोग आमतौर पर मोबाइल, लैपटॉप पर ज्यादा समय बिताना, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को उपयोग करते समय उनसे बराबर दूरी ना होना, प्रकृतिक रोशनी में कम समय बिताने से मायोपिया से ग्रसित होने का समस्या बढ़ता है। क्योंकि आज के परिवेश में लोगों का सामाजिक दायरा भी कम होता जा रहा हैं लोग किसी से मेल-मिलाप ना पसंद करते हुए बंद कमरों में ज्यादा समय व्यतीत कर रहें जिससे अभिभावक के साथ उनका बाल्य भी प्रकृतिक रोशनी से वंचित हो बंद कमरों के कृत्रिम रोशनी में जीवन बिताने में मजबूर है। दूसरा एक ही पोजीशन (स्थिति) में सिर झुकाये मोबाइल पर गेम खेलने के कारण बच्चों में सर्वाइकलगिया (गर्दन में दर्द) होने कि प्रबल संभावना होती है।
              और तो और आज के बच्चों का बचपन देखता हूं और फिर अपने बचपन के बारें में सोचता हूं जहां हमारा बचपन विल्पुता के कगार पर पहुचे चुके खेलों कबड्डी, खो-खो, लुका-छिपी, ऊँची कूद जैसे के साथ-साथ क्रिकेट, फुटबाल, बालीबाल के साथ बीता, वही कल के भविष्य बच्चों का बचपन बंद कमरों में टीवी और स्मार्ट फोन पर बीत रहा जिससे उनका शारीरिक रूप से पूर्णतया विकास ना होने के साथ-साथ उनमें सामाजिकता कि कमी भी आती है। बाहर निकल कर बच्चे जब तक ना खेलेंगे, तब तक अपने परिवेश में बाकी बच्चों से दोस्ती भी ना कर पाएंगे और वो बचपन से ही संकुचित जीवन के आदि हो जायेंगे।
             इन सब के साथ मोबाइल टीवी पर काफी ऐसी ज्ञानवर्धक कार्यक्रम हैं जो बच्चों के विकास के लिए अति-आवश्यक हैं इससे ऐतराज नहीं किया जा सकता लेकिन उपयुक्त बातों का ध्यान रखते हुए बच्चों के मोबाइल और टीवी के उपयोग का समय सीमित कर देना चाहिए।
             अतः आजकल अभिभावक से इतना कहना चाहूँगा कि आपके घर का बच्चा आपका ही बच्चा नहीं है अपितु राष्ट्र का धरोहर भी है, जो कल देश के भविष्य कि दिशा का निर्धारण करेगा, इतिहास उठा कर देख लीजिए महात्मा गाँधी बचपन में भूत के डर के कारण अंधेरे में एक कदम नहीं बढ़ा पा रहें थे, इतने में बाहर खड़ी बूढ़ी दाई रंभा ने उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा राम का नाम लो भूत तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, फिर राम नाम का ऐसा चस्का लगा उन्हें कि मरते समय भी आखिरी शब्द भी उनके “हे राम” निकला। जब बाल्य मन इतना ग्राही होता है तो सोचिए आपका बच्चा जब देखेगा की नोबिता जिद्द करके डोरेमोन से अपनी बात मनवा लेती है तो वो भी नोबिता की तरह जिद्दी बनेगा ना कि राम की तरह आज्ञाकारी।

अंकुर सिंह

अंकुर सिंह, हरदासीपुर, चंदवक जौनपुर, उ. प्र.

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