धर्म एवं संस्कृति राष्ट्र के निर्माण एवं राष्ट्रीयता के संरक्षण में सहायक सिद्ध होते हैं : नरेन्द्रानन्द

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प्रयागराज। [ मनोज पांडेय ]श्री काशी सुमेरु पीठाधीश्वर पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती महाराज के सानिध्य एवम् मुख्य आतिथ्य में माघ मेला के रामानुज नगर में स्थित महर्षि दुर्वासा आश्रम के शिविर में आयोजित शताब्दी समारोह में पूज्य शंकराचार्य महाराज ने कहा कि रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं- ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात् आत्म तत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व। वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है, बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं, एवम् ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं, तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिये शरीर कार्य करता है, उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं। वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं, तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।
शंकराचार्य ने कहा कि भारत की पहचान सदा से धर्म एवं संस्कृति ही रही है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ धर्म संस्कृति का आधार है, वहीं संस्कृति धर्म की संवाहिका है। दोनों ही अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र के निर्माण एवं राष्ट्रीयता के संरक्षण में सहायक सिद्ध होते हैं। जहां धर्म अपनी स्वाभाविकता के साथ सामाजिक परिवेश का आधार बनता है, वहीं संस्कृति सामाजिक मूल्यों का स्थायी निर्माण करती है। धर्म का सूत्र मानव के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करता है, तो वहीं संस्कृति मानवीय संवेदनाओं को सामाजिक सरोकार से जोड़ती है। इस तरह धर्म कालांतर में संस्कृति का रक्षण करता है, और संस्कृति धर्म के आधार का उन्नयन करती है। जहां धर्म हमारे सर्वस्व का प्रतीक रहा है, तो वहीं संस्कृति हमारी स्वाभाविक जीवनशैली की वाहिका रही है। दोनों ने ही भारतीय मूल्यों को जीवंत रखा है, और संसार में इसी कारण से भारत का मान-सम्मान रहा है। प्राचीन समय में धर्म एक नागरिक के जीवन के उद्देश्यों का आधार था। धर्म मात्र प्रतीक नहीं होकर समग्र चेतना का स्तंभ था। परिणामस्वरूप भारत की सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था मजबूत थी। इस तरह भारतीयों का जीवन शान्त एवं सुखी था। तब संस्कृति, भारतीयता को परिभाषित करती थी और भारत की सारी व्यवस्थाएं संस्कृति पर आधारित थीं। संस्कृति का सौरभ ही हमारे राष्ट्र का सौरभ था। इस तरह से हमारी पारिवारिक एवं सामयिक पृष्ठभूमि निरंतर विकसित होती गई। हमारे वैचारिक दृष्टिकोण का ताना-बाना हमारी संस्कृति पर ही आधारित था और हमारा संपूर्ण जीवन उन्नति के चरम पर पहुंचता रहा। धीरे-धीरे हमारी धार्मिक मान्यताएं और स्थिर होती गईं और संस्कृति का क्रमिक विकास होता गया। समारोह में जगद्गुरु स्वामी रंगरामानुजाचार्य महाराज, जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य महाराज, ज०ग० रामानुजाचार्य स्वामी सत्य नारायणाचार्य महाराज, स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती महाराज सहित अन्य जगद्गुरु एवम् सन्त-महात्मा उपस्थित थे।

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