मनोज पांडेय
प्रयागराज। छानबे विकास खंड के खम्हरियां दमुआन गांव में सत्चण्डी महायज्ञ एवं संगीत मय श्री मद्भागवत कथा के तीसरे दिन राजा दक्ष द्वारा यज्ञ में निमंत्रण, माता सती व भगवान शिव का अपमान आदि प्रसंगों पर चर्चा हुई। षिव जी के मना करने के बाद भी माता चल पड़ी और माता सती से मां के आलावा कोई भी बात नहीं किया, उल्टा राजा दक्ष सती को देख इतना क्रोधित होकर दौड़े कि सिर से मुकुट गिर गया। कथा वाचक परिक्षित महराज ने बताया कि दक्ष प्रजापति, ब्रह्मा के पुत्र थे एवं माता सती के पिता थे और सती के पिता होने के नाते भगवान शिव के ससुर भी हुए। दक्ष को माता सती का भगवान शिव से विवाह करना नहीं भाया, जिसके कारण उन्होंने विवाह के पश्चात उनसे अपने सारे रिश्ते खत्म कर लिए थे।
कहा कि एक बार की बात है, माता सती और भोलेनाथ कैलाश पर विराजमान थे, तभी कहीं से उन्हें यह सूचना मिली कि राजा दक्ष ने अपने महल में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया है, जिसमें सभी देव, देवता, यक्ष, गन्धर्व आदि को निमंत्रित किया गया है। खुदको निमंत्रण ना मिलने के कारण माता सती थोड़ी सकुचाईं और बात को संभालने के लिए शिव से बोली, “पिता के घर जाने के लिए पुत्री को कब से निमंत्रण की आवश्यकता पड़नेने लगी? पिताजी ने अनुष्ठान रखा है और मायके गए हुए काफी समय भी हो गया। अतः मैं तो मायके जाऊंगी.” भोलेनाथ के समझाने पर भी सती नहीं मानीं और राजा दक्ष के घर पहुंच गईं।
वहां जाकर मां ने देखा की विष्णु, ब्रह्मा समेत सभी देवताओं का आसन लगा है, परंतु भगवान शिव का कहीं नाम भी नहीं। तभी राजा दक्ष ने भी सती से दुर्व्यवहार किया, जिससे रुष्ट होकर माता सती ने हवन कुंड में कूद कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। यह बात जब भगवान शिव को पता लगी तो उनके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव यज्ञस्थली में उपस्थित हो गये, माता सती का जला हुआ पार्थिव देख भगवान शिव के गुस्से का ज्वालामुखी राजा दक्ष पर फूट गया, जिसके कारण भगवान शिव ने उसका सर काट दिया। उसके बाद भी भगवान शिव की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई और वो माता सती का जला हुआ पार्थिव लेकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे, जिससे उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था।
यह देख भगवान श्रीहरि ने अपने सुदर्शन चक्र को उनके पिछे छोड़ा और सुदर्शन ने एक-एक कर सती के श्रीअंग को काटना शुरू कर दिए, पृथ्वी पर जिन 52 जगह माता सती के श्रीअंग गिरे, वहां 52 शक्तिपीठों की स्थापना हुई, जोकि आज भी आस्था का मुख्य केंद्र हैं।