वाराणसी/ काशी के ज्ञान परम्परा के शोध-अध्ययन केन्द्र, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के क्षेत्रीय केन्द्र, वाराणसी में स्थित सभागार में दिनांक 31 जुलाई, 2024 को 03:00, अपराह्ण काशी-व्याख्यान-माला के अन्तर्गत ‘काशी की वैद्यकीय परम्परा’ पर विशिष्ट व्याख्यान आयोजित किया गया। कार्यक्रम के मुख्यवक्ता प्रो० चन्द्रशेखर पाण्डेय (पूर्व विभागाध्यक्ष, सिद्धान्त दर्शन विभाग, आयुर्वेद संकाय, का०हि०वि०वि०, वाराणसी) तथा सारस्वत अतिथि पद्मश्री प्रो० कमलाकर त्रिपाठी (पूर्व विभागाध्यक्ष, मेडिसिन विभाग, चिकित्साविज्ञान संस्थान, का०हि०वि०वि०, वाराणसी) रहे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो० चन्द्रभूषण झा (पूर्व संकायप्रमुख, आयुर्वेद संकाय, का०हि०वि०वि०, वाराणसी) ने की।
कला केन्द्र की परम्परानुसार कार्यक्रम का शुभारम्भ केन्द्र के शोध सहयोगी डॉ. त्रिलोचन प्रधान द्वारा प्रस्तुत मंगलाचरण से हुआ। इसके पश्चात् क्षेत्रीय निदेशक डॉ. अभिजित् दीक्षित द्वारा आगन्तुक अतिथियों का माल्यार्पण एवं अंगवस्त्रम् द्वारा सम्मानित किया गया। डॉ. दीक्षित ने स्वागत भाषण में उपस्थित सभा को सम्बोधित करते हुआ वर्णित किया कि, ‘प्रारम्भ से ही काशी परा तथा अपरा विद्याओं के मर्मज्ञ मनीषियों की आश्रयस्थली रही है। काशी की आयुर्वेद परम्परा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में धन्वन्तरि दिवोदास का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने यह भी उद्घाटित किया कि अबतक 16 से अधिक व्याख्यान इस व्याख्यान माला के अन्तर्गत आयोजित किये जा चुके हैं।
कार्यक्रम के मुख्यवक्ता प्रो. चन्द्रशेखर पाण्डेय ने विस्तार से काशी की वैद्यक परम्परा को परिभाषित किया। काशी में आयुर्वेद की आधुनिक परम्परा में मुख्यतः तीन परम्परायें प्रचलित रही है, बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र की परम्परा। उन्होंने ‘काशी किं न सेव्यते’ के ध्येयवाक्य सहित अपना सम्बोधन पूर्ण किया।
इसके अनन्तर कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि पद्मश्री प्रो. कमलाकर त्रिपाठी ने अपने उद्बोधन में कई अनुपम तथ्यों को उद्घाटित किया। उन्होंने वर्णित किया कि जैसा कि एक किम्वदन्ती के अनुसार जीसस क्राईस्ट काशी तक आये थे और यहीं उन्होंने अहिंसा के सैद्धान्तिक पहलू पर ज्ञान अर्जित किया तथा मनु महाराज ने धनलोभी वैद्य की भर्त्सना की है। उन्होंने यह भी बताया कि ब्रिटेन में चिकित्सालय को ‘टेम्पल’ कहा जाता है तथा उन्होंने दृढ़तापूर्वक यह भी कहा कि आधुनिक डॉक्टर से कही अधिक विस्तृत परम्परा वैद्यकों की होती है। उनका मानना था कि आधुनिकयुग में ज्ञान संग्रहित होता जा रहा है किन्तु उसका क्षेत्र सिमटता जा रहा है।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो० चन्द्रभूषण झा ने उद्बोधित किया कि ऋग्वेद के ऋचा के अनुसार भगवान् शिव को आदिचिकित्सक स्वीकृत किया गया है जो कि काशी के अधिपति भी हैं। अतः काशी की आयुर्वेद परम्परा भी अनादि अनन्त है। उन्होंने काशी की परम्परा में बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र की चिकित्सकीय परम्पराओं के योगदान की विशेष चर्चा की। उनका कहना था कि चिकित्सक वही श्रेष्ठ है जो रोगी की पीड़ा को दूर करने में पूर्ण सक्षम हो। कार्यक्रम के अन्त में डॉ. त्रिलोचन प्रधान ने उपस्थित श्रोतासमूहों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया। इस कार्यक्रम का संचालन डॉ. रजनीकान्त त्रिपाठी ने किया। इस व्याख्यान कार्यक्रम में प्रोफेसर विजय शंकर शुक्ल, प्रोफेसर कृष्णकान्त शर्मा, प्रोफेसर मारुति नंदन प्रसाद तिवारी, प्रोफेसर भगवत् शरण शुक्ल, प्रोफेसर अशोक कुमार जैन, प्रोफेसर कमलेश कुमार जैन, प्रोफेसर ब्रजकिशोर स्वाईं, प्रोफेसर श्रीप्रकाश पाण्डेय, प्रोफेसर रानी सिंह आदि विशिष्ट विद्वानों की उपस्थिति रही साथ ही काशी हिन्दू विश्वविघालय के आयुर्वेद संकाय के बहुत से शोधार्थी उपस्थित थे।