शिव की नगरी काशी में यह प्राचीन परंपरा, जो होली के रंगोत्सव को अपने 501 साल से भी अधिक समय से निभा रही है, वास्तव में अद्वितीय है। यहां लोग दिन भर रंगों का आनंद लेते हैं, और फिर शाम को वे अपनी मुट्ठी में संग्रहित अबीर-गुलाल को माँ चौसठ्ठी देवी के चरणों में अर्पित करते हैं। इस रीति-रिवाज के माध्यम से वे तंत्र की देवी से मुक्ति की कामना करते हैं और अपने जीवन को शुभ बनाने की प्रार्थना करते हैं।
बनारसी फगुआ के तार काशीपुराधिपति से जुड़े हुए हैं। बाबा विश्वनाथ के गौने पर काशीवासी बाबा और मां गौरा को गुलाल अर्पित करके होली के हुड़दंग की अनुमति लेते हैं। पांच शताब्दियों से अधिक समय से काशीवासी रंग-फाग के बाद मां चौसठ्ठी देवी को गुलाल अर्पित करके धूलिवंदन के साथ ही दरबार को जगाते हैं। दशाश्वमेध घाट के पास स्थित माता का मंदिर होली की शाम को गुलाल-अबीर के रंग में रंग जाता है।
इस दिन, माता के मंदिर में भक्तों की भीड़ उमड़ जाती है। लोग भगवान के नाम पर गाने गाते हैं और पूजा-अर्चना करते हैं। धार्मिक आयोजनों के साथ-साथ, होली के इस उत्सव में खासतौर पर बालकों और युवाओं के बीच रंग-बिरंगे खेल भी होते हैं। माता के मंदिर में रंगों का उत्सव सजीव होता है और लोग खुशियों में रंगते हैं। इस दिन के लिए बनाई गई मिठाईयाँ और पर्व के खास व्यंजन भी लोगों को प्रसन्न करते हैं।
होली के उत्सव में लोग एक-दूसरे के साथ खुशियों का जश्न मनाते हैं और समाज के साथ-साथ परिवार का भी महत्व बढ़ाते हैं। यह पर्व एकता और समरसता का संदेश देता है और सभी को एक-दूसरे के साथ भाईचारे के रिश्तों को मजबूत करने की शिक्षा देता है।
चौसठ्ठी देवी के चरणों में गुलाल चढ़ाने का प्रथम उल्लेख किया जाना शास्त्रीय कर्मकांड परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य अशोक द्विवेदी ने किया है। उन्होंने कहा है कि काशी में रंगोत्सव का सम्पूर्णता से सम्बंध गुलाल चढ़ाए बिना सम्भव नहीं है। पूर्वकाल में, गांवों से लोग भी चौसठ्ठी देवी के पास गुलाल लेकर आते थे और इस उत्सव के साथ ही यात्रा गाजे-बाजे के साथ निकलती थी। परन्तु, समय के साथ, यह प्रथा अब सीमित हो गई है, हालांकि परंपरा अब भी उसी प्राचीनता और गौरव के साथ जारी है।
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा पर हुई थीं विराजमान
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को ही चौसठ्ठी देवी ने काशी में अपना स्थान ग्रहण किया था। इस दिन विराजमान हुईं देवी, जिनके मंदिर में काल भैरव, एकदंत विनायक और भद्र काली के साथ भी उपस्थित हैं। काशी खंड में चौंसठ योगिनियों की कथा भी प्राप्त होती है।
शिव की कृपा से पूजित हैं 64 योगिनियां
शिव की कृपा से पूजित हैं 64 योगिनियां। पौराणिक मान्यता के अनुसार काशी के राजा दिवोदास ने जब अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया और बाबा विश्वनाथ को भी काशी से बाहर भेज दिया। काशी नगरी में वापस आने के लिए भगवान शिव ने कैलाश से पहले अष्ट भैरव व छप्पन विनायकों को काशी भेजा। इसके बाद 64 योगिनियां काशी पहुंचीं। बाबा विश्वनाथ जब दोबारा काशी पहुंचे तो उनकी ही कृपा से चौसठ योगिनियां चौसठ्ठी देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। चौसट्ठी देवी सिद्धपीठ को भी तंत्र पीठ की प्रतिष्ठा प्राप्त है।