एनटीपीसी सिंगरौली में हिंदी पखवाड़ा के तहत ‘‘हंसुली’’ का हृदयस्पर्शी नाट्य मंचन

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सोनभद्र। हिंदी पखवाड़ा के तहत संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार एनटीपीसी सिंगरौली एवं इफको के सहयोग से ख्यातिलब्ध रंग संस्था समूहन कला संस्थान द्वारा एनटीपीसी सिंगरौली में तीन दिवसीय नाट्य समारोह का आयोजन किया जा रहा है |

नाट्य समारोह के प्रथम दिवस में पारिवारिक मूल्यों में भौतिकता के कारण आयी गिरावट का जीवंत चित्रण करती नाट्य प्रस्तुति ‘‘हंसुली’’ का हृदयस्पर्शी मंचन लोगो के दिलों में उतरने में सफल रही।  इस अवसर पर राजीव अकोटकर, परियोजना प्रमुख,एनटीपीसी सिंगरौली, श्रीमती पीयूषा अकोटकर, अध्यक्षा वनिता समाज, श्री सतीश कुमार गुजरानिया, महाप्रबंधक (प्रचालन एवं अनुरक्षण)  एवं अन्य वरिष्ठ अतिथिगण द्वाराद्वीप  प्रज्ज्वलन किया गया | रंगमंचीय फलक पर एक सुखद मंचन की अनुभूति कराती नाटक ‘हंसुली’’ भारतीय संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में तीन पीढ़ियों के आपसी द्वन्द को भौतिकता के प्रभाव से परिवार में मूल्यों के क्षरण को दर्शाता है। 

नाटक के पात्र बांके और माया अपनी माँ चिन्ता के साथ अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहे है। परिवार की पुश्तैनी निशानी हंसुली को माया अपनी सास से हरहाल में पाना चाहती है, जो उसे परिवार की सत्ता पर काबिज रख सके। माया की ननद शीला का हस्तक्षेप भी उसे बर्दाश्त नहीं होता, पर निधन के पूर्व चिन्ता माया को हंसुली सौंप देती है। आगे चलकर वक्त अपने आप को दोहराता है जब माया की दोनों बहुओं का हंसुली पाने के लिए द्वन्द चरम पर पहुँच जाता है तो परिवार की इज्जत तार-तार हो जाती है और मामला पंचायत में पहुँच जाता है। पांरपरिक मूल्यों और संस्कारों को ढहता देख माया भरी पंचायत में यह प्रश्न खड़ा करती है कि जो भाई अपने भाई का नहीं हुआ, जो देवरानी अपनी जेठानी की नहीं हुई वो हमारी कैसे होगी, ऐसे हम बूढें मां बाप का क्या होगा?  

कहानीकार डॉ अखिलेश चन्द्र की लिखी कहानी पर राजकुमार शाह द्वारा रूपांतरित नाट्य आलेख उन सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों पर सोचने पर मजबूर करता है कि मां-बाप कुछ भी करके बच्चों को खुशियां देना चाहते है, उन्हे सशक्त बनाते हैं पर आज जब मां-बाप अशक्त हैं तो उन्हे उनकी परवाह नहीं हैं। भौतिकता की चाह में पीस रहे ख़ून के रिश्तों को बड़ी ही मार्मिकता से रेखांकित करने में नाट्य रूपांतरकार और निर्देशक राजकुमार शाह निर्देशकीय शिल्प और परिकल्पना से रोंगटे खड़ा कर देता है और दर्शकदीर्घा स्तब्ध है। अभिषेक कुमार गुप्ता का रंग संगीत, निर्देशक की दृश्य संरचना और मो0 हफीज का प्रकाश संयोजन नाटक की कहानी ही नही, उसकी आत्मा को भी आलोकित करती है।

माया और बांके के रूप में रिम्पी वर्मा, नवीन चन्द्रा, दोनों  बेटों और बहुओं की भूमिका में अजय कुमार, सुनील कुमार, गंगा प्रजापति, रितिका सिंह ने अपने बेजोड़ अभिनय से प्रभावित करने में सफल रहे। कथावाचक की भूमिका में स्वयं निर्देशक राजकुमार शाह दर्शकों से सीधे संवाद करते हुए उन्हे भावनात्मक रूप से बहा ले गये। आद्या मिश्रा, मनीषा प्रजापति, वैभव बिन्दुसार और राजन कुमार झा ने अलग-अलग भूमिकाओं में और भोला काका के रूप में रूपनारायन सराहनीय रहे। संगीत वाद्यकारों में तबले पर गौरव शर्मा, बांसुरी पर अभिषेक सिंह और हारमोनियम पर संगीत निर्देशक अभिषेक कुमार गुप्ता नाटक को ठोस धरातल देने में सफल रहे, लोक संगीत सोहर, होरी का भी सुन्दर प्रयोग हुआ। कला पक्ष में रतन लाल जायसवाल ने कुशल योगदान दिया।  प्रस्तुति वर्तमान में उच्च शिक्षा और उच्च अर्थोपार्जन के लिए घर से दूर होने और संस्कारो और मूल्यों को खो देने की संवेदनहीनता को बड़ी सुदृढ़ता से रेखाकिंत करता है। 

नाट्य समारोह के दूसरे दिन नाटक ‘‘सुन लो स्वर पाषाण शिला के’’ का मंचन होगा। इस अवसर पर अशोक कुमार सिंह, महाप्रबंधक (ऑपरेशन), श्रीमती रंजू सिंह, वरिष्ठ सदस्या, वनिता समाज,   सिद्धार्थ मण्डल, अपर महाप्रबंधक (मानव संसाधन), पत्रकार बंधु, यूनियन एवं असोशिएशन के पदाधिकारीगण, वरिष्ठ अधिकारीगणआदि सम्मिलित हुए। कार्यक्रम का संयोजन डॉ ओम प्रकाश, वरिष्ठ प्रबंधक(राजभाषा) द्वारा किया गया|

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