स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष चुनाव जरुरी

Spread the love

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अपने आखिरी पड़ाव पर है, कोरोना प्रोटोकॉल के दिशा निर्देश एवं व्यवहारिक पक्ष में कोई साम्यता नहीं है, बल्कि आदेशों के लिखित दस्तावेज इस दफ्तर से उस दफ्तर मेज दर मेज ठोकर खा रहे हैं| सभी राजनीतिक दल नये नये तरीके से कोरोना प्रोटोकाल की दीवारें तोड़कर अपनी अपनी सरकार बनाने के लिए मैदान में डंटे हैं|
               इसी बीच एक सुखद संयोग जो कि राष्ट्रीय/प्रांतीय विमर्श से बिल्कुल ही बाहर एवं उपेक्षित रहा वह था चुनाव से पहले 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस| वर्ष 2011 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने 25जनवरी ही तारीख इसीलिए चुना क्योंकि संविधान लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को भारत निर्वाचन आयोग का गठन किया गया था| देश लोकतांत्रिक व्यवस्था से प्राचीन काल से ही परिचित था और आज़ादी के बाद महत्वपूर्ण कार्यों में से एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव कराना भी था| देश के लिए सकुशल चुनाव करा पाना भी चुनौती से भरा पड़ा था इसीलिए निर्वाचन आयोग की सख्त आवश्यकता थी ताकि उदासीन भारतीयों  को मतदान के लिए जागरूक किया जा सके|  आज जिस मताधिकार की बात की जाती है वह हमारे सेनानियों के लंबे संघर्ष का परिणाम है, अंग्रेजों द्वारा लाये गए भारत शासन अधिनियम, 1835 के कानून तक तीन करोड़ लोगों को वोट देने का अधिकार था उस वक्त देश की कुल वयस्क आबादी का पांचवा हिस्सा था| पर भारतीय महिलाओं की हालत तो बहुत ही बद्दतर थी| शोषित महिलाओं की आवाज़ बनी मृणालिनी सेन ने 1920 में लिखा कि ब्रितानी सरकार के बनाये सभी कानून महिलाओं पर लागू होते हैं, और अगर उनके पास सम्पत्ति है तो उन्हें टेक्स भी देना पड़ता था पर वोट देने का अधिकार नहीं था| इतिहासकार गेराल्डिन फोर्ब्स ने अपनी पुस्तक ‘वूमन इन माडर्न इण्डिया’ में बेहद मार्मिक विवरण दिया जिससे तत्कालीन सोच, परिवेश एवं राजनेताओं की मानसिकता समझ आती है कि, ” अगर महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिलेगा तो उनके अंदर राजनीतिक जागृति बढ़ेगी और फिर राजनीतिक कार्य करने से महिलाएं अपनी संतान को स्तनपान कराने में असमर्थ हो जाएंगी| भारतीय समाज एक ऐसी भी मानसिक वातावरण के स्याह पक्ष के साथ आगे बढ़ रहा था|
          किसी भी लोकतांत्रिक देश में निष्पक्ष मतदान ही लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है और मजबूत लोकतंत्र किसी भी राष्ट्र के राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन की वह संवाहिका है जिसके माध्यम से शीर्ष नेतृत्व से चली आ रही सभी रुधिर रूपी योजना निचले स्तर तक निर्बाध पहुँचती है और निचले पायदान तक जरूरतमंद लोगों के लिए आक्सीजन और ग्लूकोज साबित होता है,
      देश आजादी के उत्सव के साथ ही विभाजन की त्रासदी भी झेल रहा था, आज़ादी को संभालना मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि आज़ाद हुए शोषित, दमित और पीड़ित हिन्दुस्तानियों में आज़ादी के नाम पर राजनेताओं के द्वारा ये भरा जा रहा था कि आज़ादी के बाद सभी अपने इच्छा के मालिक होंगे, यही अवसर था स्वतंत्रता के आड़ में स्वच्छन्दता के पनपने का| दायित्व बोध का संस्कार विकसित ना कर पाने का खामियाज़ा देश अभी भी भुगत रहा जिसका एक आयाम यह भी है कि अपने मत के मूल्यों का एहसास ना होना! आधुनिक भारत में सामाजिक क्रांति के वाहक समाज़वादी डॉ राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि “जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं किया करतीं” पर अफ़सोस नागरिक संस्कार में राष्ट्रीय चरित्र के अभाव एवं अपरिपक्वता ने मतदाताओं को पांच साल पर सिर्फ वोट देने वाला पुतला और सामूहिक रूप से आंकड़ों का रूप दे दिया, बस वोट देना ही पहली और आखिरी जिम्मेदारी बनता गया, आम मतदाता अगली बार और अधिक निरकुश एवं स्वेच्छाचारी प्रतिनिधि चुनकर इसका खामियाज़ा भुगतता है, यह भी एक बड़ा कारण है लोकतांत्रिक मूल्यों के अवसान का, और व्यक्ति भी ज़ब प्रत्येक दिन एक बेहतर नागरिक बनने का प्रयास नहीं करता तो वह एक पक्षपात एवं अनैतिक प्रतिनिधित्व के लिए जमीन तैयार करता है,और इसीलिए चाणक्य की प्रासंगिकता कि जिस देश की जैसी प्रजा होती है उसको राजा भी वैसा ही मिलता है व्यवहरित होते दिखाई पड़ता है| पर संविधान सभा के समापन भाषण में डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिए गए संभाषण में चाणक्य से अलग ही चिंता दिखाई देती है, डॉ प्रसाद संविधान सभा में इस चिंता को प्रकट कर रहे हैं कि, “सदन में जो लोग चुनकर आएंगे योग्य, चरित्रवान एवं ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे| यदि उनमें गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता, आख़िरकार एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है| इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों के द्वारा होता है जो इस पर नियंत्रण करते हैं तथा इसे चलाते हैं, हममें सम्प्रदायिक अंतर है, जातिगत अंतर है, भाषागत एवं प्रांतीय अंतर है इसके लिए दृढ चरित्र वाले लोगों की, दूरदर्शी लोगों की, ऐसे लोगों की जरूरत है जो छोटे छोटे समूहों तथा क्षेत्रो के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ सकें जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं, हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आएंगे|” 26 नवंबर 1950 को ही संविधान सभा में डॉ अम्बेडकर भी यही चिंता प्रकट कर रहे थे कि, “मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यूँ ना हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, ख़राब निकले तो निश्चित रूप से संविधान भी ख़राब सिद्ध होगा|
          संसदीय लोकतंत्र एवं उसकी गरिमा के पक्षधर महावीर त्यागी नेहरू सरकार में सांसद रहे,सन 1962 के युद्ध के बाद आक्साई चीन क्षेत्र चीन के कब्जे में जाने के बाद नेहरू जी ने तर्क दिया कि “इस क्षेत्र में एक तिनका भी नहीं उग सकता” नेहरू जी के इस वक्तव्य से असहमति जताते हुए त्यागी जी ने तुरंत केश विहीन सिर से टोपी उतारी और कहा कि यहाँ पर भी कुछ नहीं उगता, क्या इसे काट देना चाहिए या किसी और को दे देना चाहिए? आगे चलकर 1966 में ताशकंद समझौते से असंतुष्ट महावीर त्यागी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया, पक्ष-प्रतिपक्ष में लोकतांत्रिक आचरण एवं भय जागृत करने के लिए आवश्यक है कि यह परम्परा संसदीय लोकतंत्र से लेकर सुदूर गाँव तक अपनी साख मजबूत करे, और संसद में पुनः विश्वनाथ गहमरी जैसे लोग जायें जो 1962 में नेहरू के अगुआई में चल रहे सदन में पूर्वांचल के बेबसी और गरीबी को बयां करते हुए फूट-फूट कर रो पड़े और सदन शांत, मूक एवं आँखों को नम किये एक मत हो गया था, संविधान ने अंतिम सत्ता जनता को माना है क्योंकि एक स्वस्थ मत एक स्वस्थ सरकार के निर्माण में सहायक साबित होगा| इसीलिए भारत को चाणक्य के विचार को भी आत्मसात करना होगा और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अम्बेडकर की पीड़ा को भी गंभीरता से लेना होगा तभी सदन में महावीर त्यागी, विश्वनाथ गहमरी, लाल बहादुर शास्त्री एवं अटल विहारी वाजपेयी जैसे नेताओं की संख्या बढ़ सकेगी, और एक मजबूत लोकतंत्र के साथ हम एक सशक्त राष्ट्र के रूप में विश्व पटल पर अपने लोकतांत्रिक देश होने का डंका बजा सकेंगे|      सुरेश कुमार राय ,गाज़ीपुर
             

Leave a Reply

Your email address will not be published.