अनपरा। श्री अनंतेश्वर महादेव मंदिर प्रांगण में चल रही श्रीमद् भागवत महापुराण के तृतीय दिवस कथा व्यास पंडित वाला वेंकटेश शास्त्री ने बाल्य काल की भक्ति पर प्रकाश डालते हुए बताएं की बचपन में की गई भक्ति निस्वार्थ होती है महाराज ने ध्रुव चरित्र के प्रसंग का वर्णन हुए बताएं कि ध्रुव की पांच वर्ष की अवस्था में भगवान को प्राप्त कर लिए थे क्यों क्योंकि उस समय उनकी जो भक्ती थी वह निस्वार्थ थी जैसे-जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ने लगती है वैसे-वैसे ही मनुष्य की आवश्यकताए भी बढ़ने लगती है और उसके द्वारा जो भक्ती की जाती है वह कहीं ना कहीं स्वार्थ से जुड़ जाती है लेकिन बचपन में ना तो कोई आवश्यकता होती हैं और ना ही कोई स्वार्थ होता है इसलिए बाल्यकाल की भक्ति में भगवान जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं ।
शास्त्री जी ने बताया कि भगवान की भक्ति दो प्रकार की होती है एक अहेत भक्ति और दूसरी चहेत भक्ति अहेत भक्ति का तात्पर्य जो बाल्यकाल में की जाती है जिसमें कोई चाह नहीं होती नि:स्वार्थ होती है और उसमें शीघ्र ही भगवान प्रसन्न होकर प्राप्त हो जाते हैं लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है तो भगवान की भक्ति मैं भी कोई ना कोई चाह झलकने लगती है और किसी व्यक्ति वस्तु पद की कामना से भगवान की भक्ती होती हैं वह स्वार्थ परक हो जाती है उस समय जिस कामना से भगवान की भक्ति की जाती है उस कामना की पूर्ति तो हो जाती है लेकिन भगवान की प्राप्ति नहीं होती है।
आगे महाराज श्री ने पृथू चरित्र का वर्णन करते हुए बताएं कि गुरु के प्रति समर्पण का भाव देखना हो या फिर समर्पण की शिक्षा लेनी हो तो पृथू जी महाराज के चरित्र को देखना चाहिए पृथु जी ने अपने गुरुदेव को ज्ञान प्राप्ति के बदले में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिए थे इसके बाद शास्त्री जी ने प्रियव्रत नाभि जड़भरत जी के प्रसंग का वर्णन करते हुए अंत में अजामिलोपाख्यान के प्रसंग का बड़े ही विस्तार से वर्णन किये इस अवसर पर भारी संख्या में उपस्थित भक्तों ने भाव विभोर होकर कथा श्रवण किये।