बबुरी चंदौली। स्थानीय क्षेत्र के बौरी ग्राम सभा में मानस प्रचार सेवा समिति के तत्वावधान में आयोजित श्रीराम कथा अमृत के आठवें दिन स्वर कोकिला मानस मयूरी शालिनी त्रिपाठी के द्वारा अयोध्या कांड के माध्यम से भरत के चरित्र का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया। इस प्रसंग को सुनकर सभी श्रोतागण भाव विह्वल हो गये। कथावाचिका ने अपने प्रवचन के दौरान बताया कि बनवास के दौरान श्रीराम भक्त केवट से मिलने के बाद चित्रकूट में विश्राम कर रहे थे। जबकि उनके पिता दशरथ उनका चिंतन कर अपने प्राण को त्याग दिया। ऐसी स्थिति में भरत को उनके नौनिहाल से बुलाकर उनका दाह संस्कार कराया गया। जिसको लेकर भरत के मन में अपनी माता के प्रति रोष उत्पन्न हो गया और उन्होंने पूछा कि श्रीराम का क्या अपराध था, जो आपने उन्हें इतना कठोर दंड दिया। भरत ने राजगद्दी संभालने की बजाय उसे ठुकरा कर प्रभु प्रेम को स्वीकार किया। भरत का यही गुण उनके चरित्र को श्रेष्ठ बनाया। उन्होंने समाज के सामने यह मिशाल रखी कि हमें भौतिकवाद का त्याग कर श्रेष्ठता प्राप्त करनी चाहिए। भागने वाले को शांति व सुख कभी भी प्राप्त नहीं होगा। अत: यह आवश्यक है कि सभी लोग श्रीराम के जीवन को अपनायें व अपने जीवन को सार्थक बनावें।
कथावाचिका ने कहा कि भ्रातृत्व प्रेम किसी का है, तो वह हैं भरत जी। वर्तमान समय में भरत चरित्र की बहुत बड़ी प्राथमिकता है। जिस स्वार्थ के कारण आज भाई-भाई जहां दुश्मन जैसा व्यवहार करते हैं। वहीं भरत चरित्र में त्याग, संयम, धैर्य और ईश्वर प्रेम भरत चरित्र का दूसरा उदाहरण है। भरत का विग्रह या स्वरूप श्री राम प्रेम मूर्ति के समान है। जिससे भाई के प्रति प्रेम की शिक्षा मिलती है। इस मनुष्य जीवन में भाई व ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं है तो यह जीवन पशु समान होता है। भरत और राम से भाई व ईश्वर से प्रेम की सीख लेनी चाहिए। रामायण में भरत जी ही एक ऐसा पात्र है जिसमें स्वार्थ व परमार्थ दोनों को समान दर्जा दिया गया है। इस लिए भरत जी का चरित्र अनुकरणीय है। भरत जी का एक-एक प्रसंग धर्मसार है। क्योंकि भरत का सिद्धांत लक्ष्य की प्राप्ति व राम प्रेम को दर्शाता है।
कथा वाचिका शालिनी त्रिपाठी ने कहा कि भरत का चरित्र यदि चंदन – सा नहीं होता तो, अयोध्या का सर्वनाश हो जाता। राजभवन कैकेई के अहंकार से जल उठता और प्रजाजन राम एवं भरत का पक्ष लेकर मर मिटते। कोई कुछ भी बचा पाने में समर्थ नहीं होता। लेकिन भरत के साधु चरित्र ने सब कुछ बचा लिया। उत्पात, उपद्रव और वैमनस्य के दानव अयोध्या को छू भी नहीं सके। प्रेम का देवता सबके हृदयों में भरत के चरित्र का चंदन बनकर गमकता रहा। अपने चरित्र से भरत ने हर एक को पवित्र बनाया। पूरी कलंक कथा में मां कैकेई सबसे अधिक अपराधिनी दिखाई दे रही थीं। उनके मुख पर जो कालिख लगी थी उसका धूल पाना सहज स्थिति में असंभव लगता था। लेकिन भरत जी ने अपने शील, स्नेह से उन्हें भी एक सहानुभूति योग्य चरित्र बना दिया। भरत के ऐसे देवोपम चरित्र की महिमा गाते हुए तुलसी बाबा थकते नहीं हैं। “श्रीरामचरितमानस” के आरंभ में सबको वंदना करते समय वह भरत जी को सबसे अधिक सम्मान देते हैं- *प्रनवऊं प्रथम भरत के चरना।* *जासु नेम ब्रत जाइ न बरना।।*
सबसे पहले मैं भारत के चरणों को प्रणाम करता हूं, जिनका विनय और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता है। भरत जी का यह नियम और व्रत किसी सांसारिक चीज को पाने के लिए नहीं था । वह स्वर्ग या मोक्ष के लिए भी एकांत साधना नहीं कर रहे थे। उनके जीवन का एक लक्ष्य था- *राम चरन पंकज मन जासू।* *लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।*
कथा वाचिका ने बताया कि भरत का मन राम के चरण कमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है। कभी उनका पास नहीं छोड़ता , यही भरत जी के जीवन का सनातन सत्य है। इसी को पाने के लिए भरत तपस्वी बने थे , उनका मन राम के पास रहने में सुख का अनुभव करता था। वही इस मार्मिक प्रसंग को सुनकर रामकथा में उपस्थित मानस प्रेमी भाव विभोर हो गए और पूरी सभा राममय हो गई ।