(विशेष आलेख)
हमारे भारत देश में एक समृद्ध आध्यात्मिक और धार्मिक विरासत के साथ, कई धर्मों का पालन किया जाता है। नतीजतन धार्मिक त्योहारों की एक बड़ी संख्या को मनाया जाता है। ऐसा ही एक त्योहार आगरा का सुप्रसिद्ध कैलाश मेला है। आगरा का यह सुप्रसिद्ध कैलाश मेला हर वर्ष सावन महीने के तीसरे सोमवार को लगता है। कैलाश मेला हर साल बड़ी धूमधाम से आगरा के सिकंदरा क्षेत्र में यमुना के किनारे स्थित कैलाश मंदिर पर लगता है। कैलाश मेला सावन महीने में भगवान शिव के सम्मान में मनाया जाता है। वैसे तो साल के हर सोमवार को आगरा के कैलाश मंदिर पर भक्तों का जमावड़ा लगता है, लेकिन सावन महीने में कैलाश मंदिर का मनमोहक नजारा होता है। हर तरफ भक्ति की बयार बही होती है और भगवान शिव के भक्त दूर दराज के क्षेत्रों से दर्शन करने के लिए आते हैं। ऐसी मान्यता है कि आगरा के कैलाश मंदिर पर मांगी गयी हर मनौती भगवान शिव पूर्ण करते हैं। कैलाश मेले पर आगरा का माहौल बहुत हंसमुख होता है। आगरा के लोग कैलाश मेले को एक पर्व की तरह मनाते हैं।
कैलाश मेले के दिन आगरा के स्थानीय प्रशासन द्वारा सार्वजनिक अवकाश घोषित किया जाता है और इस दिन आगरा के सभी स्कूल-कॉलेज, सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में छुट्टी होती है। मेले के अवसर पर जो बड़ी भीड़ इकट्ठा होती है, उनकी भक्ति और खुशी देखने लायक होती है। इस दिन कैलाश मंदिर के कई-कई किलोमीटर दूर तक खेल-खिलौनों, खाने-पीने सहित अनेकों दुकानों की स्थापना की जाती है। इस दिन यमुना किनारे कैलाश मंदिर पर हजारों कांवड़िये दूर-दूर से कांवड़ लाकर भगवान शिव की भक्ति से ओत-प्रोत होकर बम-बम भोले और हर-हर महादेव के जयकारे लगाते हुए कांवड़ चढ़ाते हैं। वैसे तो सावन के हर सोमवार को आगरा के सभी सुप्रसिद्ध शिव मंदिरों में कांवड़ चढ़ाई जाती हैं लेकिन सावन के तीसरे सोमवार को कैलाश मंदिर पर कांवड़ चढाने का अपना अलग ही महत्व है। इस दिन कैलाश मंदिर के किनारे से गुजरने वाली यमुना में स्नान करना भी काफी शुभ माना जाता है, इसलिए भक्त मंदिर में शिवलिंगों के दर्शन करने से पहले यमुना में जरूर स्नान करते हैं।
माना जाता है कि आगरा के कैलाश महादेव का मंदिर पांच हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। मंदिर में स्थापित दो शिवलिंग मंदिर की महिमा को और भी बढ़ा देते हैं। कहा जाता है कि कैलाश मंदिर के शिवलिंग भगवान परशुराम और उनके पिता जमदग्नि के द्वारा स्थापित किए गए थे। महर्षि परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि का आश्रम रेणुका धाम भी यहां से पांच से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार इस मंदिर का अपना अलग ही एक महत्व है। त्रेता युग में भगवान् विष्णु के छठवें अवतार भगवान् परशुराम और उनके पिता ऋषि जमदग्नि कैलाश पर्वत पर भगवान शिव की आराधना करने गए। दोनों पिता-पुत्र की कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। इस पर भगवान परशुराम और उनके पिता ऋषि जमदग्नि ने उनसे अपने साथ चलने और हमेशा साथ रहने का आशीर्वाद मांग लिया।
इसके बाद भगवान शिव ने दोनों पिता-पुत्र को एक-एक शिवलिंग भेंट स्वरुप दिया। जब दोनों पिता-पुत्र यमुना किनारे अग्रवन में बने अपने आश्रम रेणुका के लिए चले (रेणुकाधाम का अतीत श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित है) तो आश्रम से 6 किलोमीटर पहले ही रात्रि विश्राम को रुके। फिर सुबह होते ही दोनों पिता-पुत्र हर रोज की तरह नित्य कर्म के लिए गए। इसके बाद ज्योर्तिलिंगों की पूजा करने के लिए पहुंचे, तो वह जुड़वा ज्योर्तिलिंग वहीं स्थापित हो गए। इन शिवलिंगों को महर्षि परशुराम और उनके पिता ऋषि जमदग्नि ने काफी उठाने का प्रयास किया, लेकिन उस जगह से उठा नहीं पाए। हारकर दोनों पिता-पुत्र ने उसी जगह पर दोनों शिवलिंगों की पूजा अर्चना कर पूरे विधि-विधान से स्थापित कर दिया और तब से इस धार्मिक स्थल का नाम कैलाश पड़ गया। यह मंदिर भगवान शिव और पवित्र यमुना नदी जो कि मंदिर के किनारे से होकर गुजरती है के लिए प्रसिद्ध है। कभी-कभार जब यमुना का जल-स्तर बढ़ा हुआ होता है और यमुना में बाढ़ की स्थिति होती है तो यमुना का पवित्र जल कैलाश महादेव मंदिर के शिवलिंगों तक को छू जाता है। यह अत्यंत मनमोहक दृश्य होता है। कैलाश मंदिर पर आने वाला हर व्यक्ति इस खूबसूरत ऐतिहासिक जगह की सराहना करे वगैरह नहीं रहता है।
लेखक – ब्रह्मानंद राजपूत